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प्रेमाश्रम (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :896
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8589

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‘प्रेमाश्रम’ भारत के तेज और गहरे होते हुए राष्ट्रीय संघर्षों की पृष्ठभूमि में लिखा गया उपन्यास है


ज्ञानशंकर– उन्होंने मुझे अपनी रियासत का प्रबन्ध करने को बुलाया है। मेरे लिए यह बड़ा अच्छा अवसर है। लेकिन जाऊँ कैसे? माया और उनकी माँ को तो साथ ले जा सकता हूँ, किन्तु भाभी किसी तरह जाने पर राजी नहीं हो सकतीं। शिकायत नहीं करता, लेकिन चाची से आजकल उनका बड़ा मेलजोल है। चाची और उनकी बहू दोनों ही उनके कान भरती हैं। उनका सरल स्वभाव है। दूसरों की बातों में आ जाती हैं। आजकल दोनों महिलाएँ उन्हें दम दे रही हैं कि लखनपुर का आधा हिस्सा अपने नाम करा लो। कौन जाने, तुम्हारे पति फिर विदेश की राह लें तो तुम कहीं की न रहो। चचा साहब भी उसी गोष्ठी में हैं। आज ही कल में वह लोग यह प्रस्ताव आपके सामने लायेंगे। इसलिए आप से मेरी विनीत प्रार्थना है कि इस विषय में आप जो करना चाहते हों उससे मुझे सूचित कर दें। आपके ही फैसले पर मेरे जीवन की सारी आशाएँ निर्भर हैं। यदि आपने हिस्से को बय करने का निश्चय कर लिया हो, तो मैं अपने लिए कोई और राह निकालूँ।

प्रेमशंकर– चचा साहब के विषय में तुम्हें जो सन्देह है वह सर्वथा निर्मूल है। उन्होंने आज तक कभी मुझसे तुम्हारी शिकायत नहीं की। उनके हृदय में सन्तोष है और चाहे उनकी अवस्था अच्छी न हो, पर वह उससे असन्तुष्ट नहीं जान पड़ते। रहा लखनपुर के सम्बन्ध में मेरा इरादा। मैं यह सुनना ही नहीं चाहता कि मैं उस गाँव का ज़मींदार हूँ। तुम मेरी ओर से निश्चिंत रहो। यही समझ लो कि मैं हूँ ही नहीं। मैं अपने श्रम की रोटी खाना चाहता हूँ। बीच का दलाल नहीं बनना चाहता। अगर सरकारी पत्रों में मेरा नाम दर्ज ही हो गया हो तो मैं इस्तीफा देने को तैयार हूँ। तुम्हारी भाभी के जीवन-निर्वाह का भार तुम्हारे ऊपर रहेगा। मुझसे भी जो कुछ बन पड़ेगा तुम्हारी सहायता करता रहूँगा।

ज्ञानशंकर भाई की बातें सुनकर विस्मित हो गये। यद्यपि इन विचारों में मौलिकता न थी। उन्होंने साम्यवाद के ग्रन्थों में इसका विवरण देखा था, लेकिन उनकी समझ में यह केवल मानव-समाज का आदर्श-मात्र था। इस आदर्श को व्यावहारिक रूप में देख कर उन्हें आश्चर्य हुआ। वह अगर इस विषय पर तर्क करना चाहते तो अपनी सबल युक्तियों से प्रेमशंकर को निरुत्तर कर देते। लेकिन यह समय इन विचारों के समर्थन करने का था, न कि अपनी वाक्पटुता दिखाने का। बोले, भाई साहब! यह समाज-संगठन का महान् आदर्श है, और मुझे गर्व है कि आप केवल विचार से नहीं व्यवहार से भी उसके भक्त हैं। अमेरिका की स्वतन्त्र भूमि में इन भावों का जाग्रत होना स्वाभाविक है। यहाँ तो घर से बाहर निकलने की नौबत ही नहीं आयी। आत्म-बल और बुद्धि-सामर्थ्य से भी वंचित हूँ। मेरे संकल्प इतने पवित्र और उत्कृष्ट क्योंकर हो सकते हैं, मेरी संकीर्ण दृष्टि में तो यही जमींदारी, जिसे आप (मुस्कराकर) बीच की दलाली समझतें हैं, जीवन का सर्वश्रेष्ठ रूप है। हाँ, सम्भव है आगे चलकर आपके सत्संग से मुझमें भी सद्विचार उत्पन्न हो जायँ।

प्रेम– तुम अपने ही मन में विचार करो। यह कहाँ का न्याय है कि मिहनत तो कोई करे, उसकी रक्षा का भार किसी दूसरे पर हो, और रुपये उगाहें हम?

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