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प्रेमाश्रम (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :896
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8589

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‘प्रेमाश्रम’ भारत के तेज और गहरे होते हुए राष्ट्रीय संघर्षों की पृष्ठभूमि में लिखा गया उपन्यास है


ज्वाला– पहले तो पूछने लगे, यह है कौन आदमी? जब मैंने कहा, यह मेरे सहपाठी और साथ के खिलाड़ी हैं तब उसे और भी दिलचस्पी हुई। पूछे क्या करते हैं, कहाँ रहते हैं? मेरी समझ में देहातों के बैंकों के सम्बन्ध में आपने जो रिमार्क किये हैं उनका उन पर बड़ा असर हुआ।

ज्ञान– (मुस्कराकर) भाई जान, आपसे क्या छिपाएँ। वह टुकड़ा मैंने एक अँगरेजी पत्रिका से कुछ काँट-छाँट कर नकल कर लिया था। (सावधन होकर) कम-से-कम यह विचार मेरे न थे।

ज्वाला– आपको हवाला देना चाहिए था।

ज्ञान– विचारों पर किसी का अधिकार नहीं होता। शब्द तो अधिकांश मेरे ही थे।

ज्वाला– गायत्री देवी तो बहुत प्रसन्न हुई होंगी। कुछ वरदान देंगी या नहीं?

ज्ञान– उनका एक पत्र आया है। अपने इलाके का प्रबन्ध मेरे हाथों में देना चाहती है।

ज्वाला– वाह, क्या कहने! वेतन भी ५०० रु. से कम न होगा।

ज्ञान– वेतन का तो जिक्र न था। शायद इतना न दे सकें।

ज्वाला– भैया, अगर वहाँ ३०० रु. भी मिलें तो आप हम लोगों से अच्छे रहेंगे। खूब सैर-सपाटे कीजिए, मोटर दौड़ाते फिरिए, और काम ही क्या है? हम लोगों की भाँति कागज का पुलिन्दा तो सिर पर लादकर न लाना पड़ेगा। वहाँ कब तक जाने का विचार है?

ज्ञान– जाने को तो मैं तैयार हूँ, लेकिन जब आप गला छोड़ें।

ज्वालासिंह ने बात काटकर कहा, फैमिली को भी साथ ले जाइएगा न? अवश्य ले जाइए। मैंने भी एक सप्ताह हुए स्त्री को बुला लिया है। इस ऊजड़ में भूत की तरह अकेला पड़ा रहता था।

ज्ञान– अच्छा तो भाभी आ गयीं? बड़ा आनन्द रहेगा। कॉलेज में तो आप परदे के बड़े विरोधी थे?

ज्वाला– अब भी हूँ, पर विपत्ति यह है कि अन्य पुरुष के सामने आते हुए उनके प्राण निकल से जाते हैं। अरदली और नौकर से निस्संकोच बाते करती हैं, लेकिन मेरे मित्रों की परछाई से भी भागती हैं। खींच-खाँच के लाऊँ भी तो सिर झुकाकर अपराधियों की भाँति खड़ी रहेंगी।

ज्ञान– अरे, तो क्या मेरी गिनती उन्हीं मित्रों में है?

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