लोगों की राय

सदाबहार >> प्रेमाश्रम (उपन्यास)

प्रेमाश्रम (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :896
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8589

Like this Hindi book 8 पाठकों को प्रिय

370 पाठक हैं

‘प्रेमाश्रम’ भारत के तेज और गहरे होते हुए राष्ट्रीय संघर्षों की पृष्ठभूमि में लिखा गया उपन्यास है


ज्ञान– कह चुकीं या और कहना है?

विद्या– कहने-सुनने की बात नहीं है, मुझे तुम्हारा वहाँ जाना सर्वथा अनुचित जान पड़ता है।

ज्ञान– अच्छा तो अब मेरी बात सुनो। मुझे वर्तमान और भविष्य की अवस्था का विचार करके यही उचित जान पड़ता है कि इस असवर को हाथ से न जाने दूँ। जब मैं जी तोड़कर काम करूँगा, दो की जगह एक खर्च करूँगा, एक ही जगह दो जमा करके दिखाऊँगा, तो गायत्री बावली नहीं है कि अनायास मुझ पर संदेह करने लगें। और फिर मैं केवल नौकरी के इरादे से नहीं जाता, मेरे विचार कुछ और ही हैं।

विद्या ने सशंक दृष्टि से ज्ञानशंकर को देखकर पूछा– और क्या विचार है?

ज्ञान– मैं इस समृद्धिपूर्ण रियासत को दूसरे के हाथ में नहीं देखना चाहता। गायत्री के बाद जब उस पर दूसरों का ही अधिकार होगा तो मेरा क्यों न हो?

विद्या ने कुतूहल से देखकर कहा– तुम्हारा क्या हक है?

ज्ञान– मैं अपना हक जमाना चाहता हूँ। अब मैं चलता हूँ, ज्वालासिंह से निबटता आऊँ।

विद्या– उनसे क्या निबटोगे? उन्होंने कोई रिश्वत ली है?

ज्ञान– तो फिर इतना मित्रभाव क्यों दिखाते हैं?

विद्या– यह उनकी सज्जनता है। यह आवश्यक नहीं कि वह आपके मित्र हों तो आपके लिए दूसरों पर अन्याय करें।

ज्ञान– यही बात मैं उनके मुँह से सुनना चाहता हूँ। इसका मुँहतोड़ जवाब मेरे पास है।

विद्या– अच्छा तो जाओ, जो जी में आये करो। फिर मुझसे क्यों सलाह लेते हो?

ज्ञान– तुमसे सलाह नहीं लेता, तुममें इतनी ही बुद्धि होती तो फिर रोना काहे का था? स्त्रियाँ बड़े-बड़े काम कर दिखाती हैं। तुमसे इतना भी न हो सका कि शीलमणि से इस मुकदमें के सम्बन्ध में कुछ बाचचीत करतीं, तुम्हारी तो जरा-जरा सी बात में मान हानि होने लगती है।

विद्या– हाँ, मुझसे यह सब नहीं हो सकता। अपना स्वभाव ही ऐसा नहीं है।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book