सदाबहार >> प्रेमाश्रम (उपन्यास) प्रेमाश्रम (उपन्यास)प्रेमचन्द
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‘प्रेमाश्रम’ भारत के तेज और गहरे होते हुए राष्ट्रीय संघर्षों की पृष्ठभूमि में लिखा गया उपन्यास है
ज्वाला– हाँ, खूब देखा। जिस बात का सन्देह था वही सच्ची निकली। ज्ञानशंकर का दावा बिल्कुल निस्सार है। उसके मुख्तार और चपरासियों ने मुझे बहुत-कुछ चकमा देना चाहा, लेकिन मैं इन लोगों के हथकंडों को खूब जान गया हूँ। बस, हाकिमों को धोखा देकर अपना मतलब निकाल लेते हैं। जरा इस भलमनसाहत को देखो कि असामियों के तो जान के लाले पड़े हुए हैं और इन्हें अपने प्याले-भर खून की धुन सवार है। इतना भी नहीं हो सकता कि जरा गाँव में जाकर गरीबों की तसल्ली तो करते। इन्हीं का भाई है कि जमींदारी पर लात मारकर दीनों की निःस्वार्थ सेवा कर रहा है, अपनी जान हथेली पर लिये फिरता है और एक यह महापुरुष हैं कि दीनों की हत्या करने से भी नहीं हिचकते। मेरी निगाह में तो अब इनकी आधी इज्जत भी नहीं रही, खाली ढोल है।
शील– तुम जिनकी बुराई करने लगते हो, उसकी मिट्टी पलीद कर देते हो। मैं भी आदमी पहचानती हूँ। ज्ञानशंकर देवता नहीं, लेकिन जैसे सब आदमी होते हैं वैसे ही वह भी हैं। ख्वामख्वाह दूसरों से बुरे नहीं।
ज्वाला– तुम उन्हें जो चाहो कहो पर मैं तो उन्हें क्रूर और दुरात्मा समझता हूँ।
शील– तब तुम उनका दावा अवश्य ही खारिज कर दोगे?
ज्वाला– कदापि नहीं, मैं यह सब जानते हुए भी उन्हीं की डिग्री करूँगा, चाहे अपील से मेरा फैसला मन्सूख हो जाये।
शील– (प्रसन्न होकर) हाँ, बस मैं भी यही चाहती हूँ, तुम अपनी-सी कर दो, जिससे मेरी बात बनी रहे।
ज्वाला– लेकिन यह सोच लो कि तुम अपने ऊपर कितना बड़ा बोझ ले रही हो। लखनपुर में प्लेग का भयंकर प्रकोप हो रहा है। लोग तबाह हुए जाते हैं, खेत काटने की भी किसी को फुरसत नहीं मिलती। कोई घर ऐसा नहीं, जहाँ से शोक-विलाप की आवाज न आ रही हो। घर के घर अँधेरे हो गये, कोई नाम लेनेवाला भी न रहा। उन गरीबों में अब अपील करने की सामर्थ्य नहीं। ज्ञानशंकर डिग्री पाते ही जारी कर देंगे। किसी के बैल नीलाम होंगे, किसी के घर बिकेंगे, किसी की फसल खेत में खड़ी-खड़ी कौड़ियों के मोल नीलाम हो जायेगी। यह दीनों की हाय किस पर पड़ेगी? यह खून किसी की गर्दन पर होगा? मैं बदमामी से नहीं डरता लेकिन अन्याय और अनर्थ से मेरे प्राण काँपते हैं।
शीलमणि यह व्याख्यान सुनकर काँप उठी। उनके इस मामले को इतना महत्त्वपूर्ण न समझा था। उनका मौन-व्रत टूट गया, बोली– यदि यह हाल है तो आप वही कीजिए जो न्याय और सत्य कहे। मैं गरीबों की आह नहीं लेना चाहती। मैं क्या जानती थी कि जरा-से दावे का यह भीषण परिणाम होगा?
ज्वालासिंह के हृदय पर से एक बोझ-सा उतर गया। शीलमणि को अब तक वह न समझ थे। बोले, विद्यावती के सामने कौन-सा मुँह लेकर जाओगी?
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