सदाबहार >> प्रेमाश्रम (उपन्यास) प्रेमाश्रम (उपन्यास)प्रेमचन्द
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‘प्रेमाश्रम’ भारत के तेज और गहरे होते हुए राष्ट्रीय संघर्षों की पृष्ठभूमि में लिखा गया उपन्यास है
श्रद्धा– उनकी तो यहाँ से बदली हो गयी। शीलमणि की महरी आज आयी थी। कहती थी, तीन-चार दिन में चले जायेंगे। दर्जा भी घटा दिया गया है।
ज्ञानशंकर ने चौंककर कहा– सच!
श्रद्धा– शीलमणि कल आने वाली है। विद्या बड़े संकोच में पड़ी हुई है।
ज्ञान– मुझसे बड़ी भूल हुई। इसका शोक जीवन-पर्यन्त रहेगा। मुझे तो अब इसका विश्वास हो जाता है कि भैया ने उनके कान भी भर दिये थे। जिस दिन वह मौका देखने गये थे उसी दिन भैया भी लखनपुर पहुँचे। बस, इधर तो ज्वालासिंह को पट्टी पढ़ायी उधर गाँव वालों को पक्का-पोढ़ा कर दिया। मैं कभी कल्पना भी न कर सकता था कि वह इतनी दूर की कौड़ी लायेंगे, नहीं तो मैं पहले से ही चौकन्ना रहता।
श्रद्धा ने ज्ञानशंकर को अनादर की दृष्टि से देखा और वहाँ से उठ कर चली गयी। दूसरे दिन शीलमणि आयी और दिन भर वहाँ रही। चलते समय विद्या और श्रद्धा से गले मिलकर खूब रोयी।
ज्वालासिंह पाँच दिन और रहे। ज्ञानशंकर रोज उनसे मिलने का विचार करते, लेकिन समय आने पर कातर हो जाते थे। भय होता, कहीं उन्होंने उन आक्षेपूर्ण लेखों की चर्चा छेड़ दी तो क्या जवाब दूँगा? धाँधली तो कर सकता हूँ, साफ मुकर जाऊँ कि मैंने कोई लेख नहीं लिखा, मेरे नाम से तो कोई लेख छपा नहीं किन्तु शंका होती थी कि कहीं इस प्रपंच से ज्वालासिंह की आँखों में और न गिर जाऊँ।
पाँचवे दिन ज्वालासिंह यहाँ से चले। स्टेशन पर मित्र जनों की अच्छी संख्या थी। प्रेमशंकर भी मौजूद थे। ज्वालासिंह मित्रों के साथ हाथ मिला-मिलाकर विदा होते थे। गाड़ी के छूटने में एक-दो मिनट ही बाकी थे कि इतने में ज्ञानशंकर लपके हुए प्लेटफार्म पर आये और पीछे की श्रेणी में खड़े हो गये। आगे बढ़कर मिलने की हिम्मत न पड़ी। ज्वालासिंह ने उन्हें देखा और गाड़ी से उतरकर उनके पास आये और गले से लिपट गये। ज्ञानशंकर की आँखों से आँसू बहने लगे। ज्वालासिंह रोते थे कि चिरकाल की मैत्री का ऐसा शोकमय अन्त हुआ, ज्ञानशंकर रोते थे कि हाय! मेरे हाथों ऐसे सच्चे, निश्छल, निःस्पृह मित्र का अमंगल हुआ!
गार्ड ने झण्डी दिखाई तो ज्ञानशंकर ने कम्पित स्वर में कहा– , भाई जान, मैं अत्यन्त लज्जित हूँ।
ज्वालासिंह बोले– उन बातों को भूल जाइए।
ज्ञान– ईश्वर ने चाहा तो इसका प्रतिकार कर दूँगा।
ज्वाला– कभी-कभी पत्र के इस सदव्यवहार पर कुतूहल हुआ। उनके विचार में उस घाव का भरना दुस्तर था। उससे ज्यादा आश्चर्य प्रेमशंकर को हुआ, जो ज्ञानशंकर को उससे कहीं असज्जन समझते थे, जितने वह वास्तव में थे।
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