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प्रेमाश्रम (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :896
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8589

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‘प्रेमाश्रम’ भारत के तेज और गहरे होते हुए राष्ट्रीय संघर्षों की पृष्ठभूमि में लिखा गया उपन्यास है


गायत्री– मुझे भी उसकी प्यारी-प्यारी भोली सूरत याद आती है। कई बार इच्छा हुई कि चलूँ, सबसे मिल जाऊँ, पर रियासत के झमेले से फुरसत ही नहीं मिलती। यह बोझ आप सँभालें तो मुझे जरा साँस लेने का अवकाश मिले। आपके लेख का तो बड़ा आदर हुआ। (मुस्कराकर) खुशामद करना कोई आप से सीख ले।

ज्ञान– जो कुछ था वह मेरी श्रद्धा का अल्पांश था।

गायत्री ने गुणज्ञता के भाव से मुस्कराकर कहा– जब थोड़ा-सा पाप बदनाम करने को पर्याप्त हो तो अधिक क्यों किया जाये? कार्तिक में हिज एक्सेलेन्सी यहाँ आने वाली हैं। उस अवसर पर मेरे उपाधि-प्रदान का जलसा करना निश्चय किया है। अभी तक केवल गजट में सूचना छपी है। अब दरबार में मैं यथोचित समारोह और सम्मान के साथ उपाधि से विभूषित की जाऊँगी।

ज्ञान– तब तो अभी से दरबार की तैयारी होनी चाहिए।

गायत्री– आप बहुत अच्छे अवसर पर आये। दरबार के मंडप में अभी से हाथ लगा देना चाहिए। मेहमानों का ऐसा सत्कार किया जाय कि चारों ओर धूम मच जाय। रुपये की जरा भी चिन्ता मत कीजिए। आप ही इस अभिनय के सूत्रधार हैं, आपके ही हाथों इसका सूत्रपात होना चाहिए। एक दिन मैंने जिलाधीश से आपका जिक्र किया था। पूछने, लगे, उनके राजनीतिक विचार कैसे हैं। मैंने कहा, बहुत ही विचारशील, शान्त प्रकृति के मनुष्य हैं। यह सुनकर बहुत खुश हुए और कहा, वह आ जायँ तो एक बार जल्से के सम्बन्ध में मुझसे मिल लें।

इसके बाद गायत्री ने इलाके की सुव्यवस्था और अपने संकल्पों की चर्चा शुरू की। ज्ञानशंकर को उसके अनुभव और योग्यता पर आश्चर्य हो रहा था। उन्हें भय होता कि कदाचित मैं इन कार्यों को उत्तम रीति से सम्पादन न कर सकूँ। उन्हें देहाती बैंकों का बिलकुल ज्ञान न था। निर्माण कार्य से परिचित न थे, कृषि के नये आविष्कारों से कोरे थे, किन्तु इस समय अपनी अयोग्यता प्रकट नितान्त अनुचित था। वह गायत्री की बातों पर ऐसी मर्मज्ञता से सिर हिलाते थे और बीच-बीच में टिप्पणियाँ करते थे, मानो इन विषयों में पारंगत हो। उन्हें अपनी बुद्धिमत्ता और चातुर्य पर भरोसा था। इसके बल पर वह कोई काम हाथ में लेते हुए न हिचकते थे।

ज्ञानशंकर को दो-चार दिन भी शान्ति से बैठकर काम को समझने का अवसर न मिला। दूसरे ही दिन दरबार की तैयारियों में दत्तचित्त होना पड़ा। प्रातः काल से सन्ध्या तक सिर उठाने की फुरसत न मिलती। बार-बार अधिकारियों से राय लेनी पड़ती, सजावट की वस्तुओं को एकत्र करने के लिए बार-बार रईसों की सेवा में दौड़ना पड़ता। ऐसा जान पड़ता था कि यह कोई सरकारी दरबार है लेकिन कर्त्तव्यशील उत्साहित पुरुष थे। काम से घबराते न थे। प्रत्येक काम को पूरी जिम्मेदारी से करते थे। वह संकोच और अविश्वास जो पहले किसी मामले में अग्रसर न होने देता था, अब दूर होता जाता था। उनकी अध्यवसायशीलता पर लोग चकित हो जाते थे। दो महीनों के अविश्रान्त उद्योग के बाद दरबार का इन्तजाम पूरा हो गया। जिलाधीश ने स्वयं आकर देखा और ज्ञानशंकर की तत्परता और कार्यदक्षता की खूब प्रशंसा की। गायत्री से मिले तो ऐसे सुयोग्य मैनेजर की नियुक्ति पर उसे बधाई दी। अभिनन्दन पत्र की रचना का भार भी ज्ञानशंकर पर ही था। साहब बहादुर ने उसे पढ़ा तो लोट-पोट हो गये और नगर के मान्य जनों से कहा, मैंने किसी हिन्दुस्तानी की कलम में यह चमत्कार नहीं देखा।

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