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प्रेमाश्रम (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :896
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8589

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‘प्रेमाश्रम’ भारत के तेज और गहरे होते हुए राष्ट्रीय संघर्षों की पृष्ठभूमि में लिखा गया उपन्यास है


मनोहर– भैया तुम जानकर अनजान बनते हो। वह संसार के मालिक हैं, उनकी महिमा अपरम्पार है।

कादिर– कौन जानता है, उनकी क्या मरजी है? बुराई से भलाई करते हैं। इतना मन न छोटा करो।

दुखरन– (हँसकर) यह सब मन को समझाने का ढकोसला है। कादिर मियाँ, यह पत्थर का ढेला है, निरा मिट्टी का पिंडी। मैं अब तक भूल में पड़ा हुआ था। समझता था, इसकी उपासना करने से मेरे लोक-परलोक दोनों बन जाएँगे। आज आँखों के सामने वह परदा हट गया। यह निरा मिट्टी का ढेला है। यह लो महाराज, जाओ जहाँ तुम्हारा जी चाहे! तुम्हारी यही पूजा है। तीस साल की भगती का तुमने मुझे जो बदला दिया है, मैं भी तुम्हें उसी का बदला देता हूँ।

यह कहकर भगत ने शालिग्राम की प्रतिमा को जोर से एक ओर फेंक दिया। न जाने कहाँ जाकर गिरी। फिर दौड़े हुए घर में गये पिटारी लिये हुए बाहर निकले। मनोहर लपका कि पिटारी उनके हाथ से छीन लूँ। लेकिन भगत ने उसे अपनी ओर आते देखकर फुर्ती से पिटारी खोली और उसे हवा में उछाल दी। सभी सामग्रियाँ इधर-उधर फैल गयीं। तीस वर्ष की धर्म-निष्ठा और आत्मिक श्रद्धा नष्ट हो गयी। धार्मिक विश्वास की दीवार हिल गयी। और उसकी ईंट बिखर गयीं।

कितना हृदय-विदारक दृश्य था। प्रेमशंकर का हृदय गद्गद हो गया। भगवान्! इस असभ्य, अशिक्षित और दरिद्र मनुष्य का इतना आत्माभिमान? इसे अपमान ने इतना मर्माहत कर दिया! कौन कहता है, गँवारों में भावना निर्जीव हो जाती है? कितना दारुण आघात है जिसने भक्ति, विश्वास तथा आत्मगौरव को नष्ट कर डाला!

प्रेमशंकर सब आदमियों के पीछे खड़े थे। किसी ने उन्हें नहीं देखा। वह वहीं से चौपाल चले गये। वहाँ पलंग बिछा तैयार था। डपटसिंह चौका लगाते थे, कल्लू पानी भरते थे। उन्हें देखते ही गौस खाँ झुककर आदाब-अर्ज बजा लाये और कुछ सकुचाते हुए बोले, हुजूर को तहसीलदार साहब के यहाँ बड़ी देर हो गयी।

प्रेमशंकर– हाँ, इधर-उधर की बातें करने लगे। क्यों, यहाँ कहार नहीं है क्या? ये लोग क्यों पानी भर रहे हैं? उसे बुलाइए, मुनासिब मजदूरी दी जायगी।

गौस खाँ– हुजूर, कहार तो चार घर थे, लेकिन सब उजड़ गये। अब एक आदमी भी नहीं है।

प्रेमशंकर– यह क्यों?

गौस खाँ– अब हूजूर से क्या बतलाऊँ, हमीं लोगों की शरारत और जुल्म से। यहाँ हमेशा तीन-चार चपरासी रहते हैं। एक-एक के लिए एक-एक खिदमतगार चाहिए। और मेरे लिए तो जितने खिदमतगार हों उतने थोड़े हैं। बेचारे सुबह से ही पकड़ लिए जाते थे, शाम को छुट्टी मिलती थी। कुछ खाने को पा गये, नहीं तो भूखे ही लौट जाते थे। आखिर सब के सब भाग खड़े हुए, कोई कलकत्ता गया, कोई रंगून। अपने बाल बच्चों को भी लेते गये। अब यह हाल है कि हाथों से बर्तन-तक धोने पड़ते हैं।

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