सदाबहार >> प्रेमाश्रम (उपन्यास) प्रेमाश्रम (उपन्यास)प्रेमचन्द
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‘प्रेमाश्रम’ भारत के तेज और गहरे होते हुए राष्ट्रीय संघर्षों की पृष्ठभूमि में लिखा गया उपन्यास है
यह कहकर वह फिर अपने कार्य में व्यस्त हो गया। कोई किसी से न बोला। बलराज टालमटोल करता रहा और बिलासी उदास बैठी कभी रोती और कभी अपने को कोसती, यहाँ तक कि सन्ध्या हो गयी। तीनों ने धान के गट्ठे गाड़ी पर लादे और लखनपुर चले। बलराज गाड़ी हाँकता था और मनोहर पीछे-पीछे उच्च स्वर से एक बिरहा गाता हुआ चला आता था। राह में कल्लू अहीर मिला, बोला, मनोहर काका आज बड़े मगन हो। मनोहर का गाना समाप्त हुआ तो उसने भी एक बिरहा गाया। दोनों साथ-साथ गाँव में पहुँचे तो एक हलचल-सी मची हुई थी। चारों ओर चरावर की ही चर्चा थी। कादिर के द्वार पर एक पंचायत सी बैठी हुई थी। लेकिन मनोहर पंचायत में न जाकर सीधा घर गया और जाते-ही-जाते भोजन माँगा। बहू ने रसोई तैयार कर रखी थी। इच्छापूर्ण भोजन करके नारियल पीने लगा। थोड़ी देर में बलराज भी पंचायत से लौटा। मनोहर ने पूछा, कहो क्या हुआ?
बलराज– कुछ नहीं, यह सलाह हुई है कि खाँ साहब को कुछ नजर-वजर दे कर मना लिया जाय। अदालत में सब लोग घबड़ाते हैं।
मनोहर– यह तो मैं पहले से ही समझ गया था। अच्छा जाकर चटपट खा-पी लो। आज मैं भी तुम्हारे साथ रखवाली करने चलूँगा। आँख लग जाय तो जगा लेना।
एक घंटे बाद दोनों खेत की ओर चलने को तैयार हुए, मनोहर ने पूछा, कुल्हाड़ा खूब चलता है न?
बलराज– हाँ, आज ही तो रगड़ा है।
मनोहर– तो उसे ले लो।
बलराज– मेरा कलेजा थर-थर काँप रहा है।
मनोहर– काँपने दो। तुम्हारे साथ मैं भी तो रहूँगा। तुम दो-एक हाथ चलाके वहाँ से लम्बे हो जाना और सब मैं देख लूँगा। इस तरह आके सो रहना, जैसे कुछ जानते ही नहीं। कोई कितना ही पूछे, डरावे धमकावे मुँह मत खोलना। मैं अकेले ही जाता, मुदा एक तो मुझे अच्छी तरह सूझता नहीं, कई दिनों से रतौंधी होती है, दूसरे हाथों में अब वह बल नहीं कि एक चोट में वारा-न्याय हो जाय।
मनोहर यह बातें ऐसी सावधानी से कह रहा था, मानो कोई साधारण घरेलू बातचीत हो। बलराज इसके प्रतिकूल इसके शंका और भय से आतुर हो रहा था। क्रोध के आवेश में वह आग में कूद सकता था, किन्तु इस पैशाचिक हत्याकाण्ड से उसके प्राण सूख जाते थे।
खेत में पहुँचकर दोनों मचान पर लेटे। अमावस की रात थी। आकाश पर कुछ बादल भी आये थे। चारों ओर घोर अन्धकार छाया हुआ था।
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