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प्रेमाश्रम (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :896
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8589

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‘प्रेमाश्रम’ भारत के तेज और गहरे होते हुए राष्ट्रीय संघर्षों की पृष्ठभूमि में लिखा गया उपन्यास है


एक दिन वह कई सहृदय मित्रों के साथ बैठे हुए इसी विषय पर बातचीत कर रहे थे कि एक सज्जन ने कहा, यदि आपका विचार है कि यह प्रथा कानून से बन्द की जा सकती है तो आपकी भ्रान्ति है। इस विष-युक्त पौधे की जड़ें मनुष्य के हृदय में हैं और जब तक इसे हृदय से खोदकर न निकालिएगा यह इसी प्रकार फूलता-फलता रहेगा।

प्रेमशंकर– कानून में कुछ-न-कुछ सुधार तो हो ही सकता है!

इस पर उन महाशयों ने जोर देकर कहा, कदापि नहीं। बल्कि स्वार्थ प्रत्यक्ष रूप से स्फुटित होने का अवसर न पाकर और भी भयंकर रूप धारण कर लेगा।

इस पर एक किसान जो बँटवारे की दरख्वास्त करके कचहरी से लौटा था और आज यहीं ठहरा हुआ था, बोल उठा, कहूँ कुछ न होई। हम तो आपे लोगन के पीछे-पीछे चलित हैं। जब आपके लोगन में भाई-भाई में निबाह नाहीं होय सकत है तो हमार कस होई? आपका नारायण सब कुछ दिये हैं, मुदा आपे अपने भाई से अलग रहत हो।

ये उच्छृंखल शब्द प्रेमशंकर के हृदय में तीर के समान चुभ गये। सिर झुका लिया। मुखश्री मलीन हो गयी। मित्रों ने कृषक की ओर तिरस्कार-पूर्ण नेत्रों से देखा। यह एक जगत् व्यापार था। यह व्यक्तियों को खींचना नितान्त न्याय-विरुद्ध था, पर वह अक्खड़ देहाती सभ्यता के रहस्यों को क्या जानें? मुँह में जो बात आयी कह डाली। एक महाशय ने कहा, निरे गँवार हो, जरा भी तमीज नहीं।

दूसरे महाशय बोले, अगर इतना ही ज्ञान होता तो देहाती क्यों कहलाते? न अवसर का ध्यान, न औचित्य का विचार, जो कुछ ऊँटपटाँग मुँह में आया, बक डाला।

बेचारे किसान को अब मालूम हुआ कि मुँह से कोई अनुचित बात निकल गयी। लज्जित होकर बोला, साहब, मैं गँवार मनई। ई सब फेरफान का जानौं। जौन कुछ भूल चूक हो गयी होय माफ की जाय।

प्रेमशंकर– नहीं-नहीं, तुमने कोई अनुचित बात नहीं कही। मेरे लिए इस स्पष्ट कथन की आवश्यकता थी। तुमने अच्छी शिक्षा दे दी। कोई सन्देह नहीं कि शिक्षित जनों में भी विरोध और वैमनस्य का उतना ही प्रकोप है जितना अशिक्षित लोगों में है और मैं स्मयं इस विषय में दोषी हूँ। मुझे किसी को समझाने का अधिकार नहीं।

मित्रगण कुछ देर तक और बैठे रहे, लेकिन प्रेमशंकर कुछ ऐसे दब गये कि फिर जबान ही न खुली। अन्त में सब एक-एक करके चले गये।

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