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प्रेमाश्रम (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :896
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8589

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‘प्रेमाश्रम’ भारत के तेज और गहरे होते हुए राष्ट्रीय संघर्षों की पृष्ठभूमि में लिखा गया उपन्यास है


प्रेमशंकर ने सामने आकर कहा, मैं इस दया-दृष्टि के लिए आपका अनुगृहीत हूँ, लेकिन जब मेरे ये निरपराध भाई बेड़ियाँ पहने खड़े हैं तो मैं उनका साथ छोड़ना उचित नहीं समझता।

अदालत में हजारों ही आदमी खड़े थे। सब लोग प्रेमशंकर को विस्मित हो कर देखने लगे। प्रभाशंकर करुणा से गद्गद होकर बोले, बेटा मुझ पर दया करो। कुछ मेरी दौड़-धूप, कुछ अपनी कुल मर्यादा और कुछ अपने सम्बन्धियों के शाक-विलाप का ध्यान करो। तुम्हारे इस निश्चय से मेरा हृदय फटा जाता है।

प्रेमशंकर ने आँखों में आँसू भरे हुए कहा, चाचा जी, मैं आपके पितृवत प्रेम और सदिच्छा का हृदय से अनुगृहीत हूँ। मुझे आज ज्ञात हुआ कि मानव-हृदय कितना पवित्र कितना उदार, कितना वात्सल्यमय हो सकता है। पर मेरा साथ छूटने से इन बेचारों की हिम्मत टूट जायेगी, ये सब हताश हो जायँगे। इसलिए मेरा इनके साथ रहना परमावश्यक है। मुझे यहाँ कोई कष्ट नहीं है। मैं परमात्मा को धन्यवाद देता हूँ कि उसने मुझे इन दीनों को तसकीन और तसल्ली देने का अवसर प्रदान किया। मेरी आपसे एक और विनती है। मेरे लिए वकील की जरूरत नहीं है। मैं अपनी निर्दोषिता स्वयं सिद्ध कर सकता हूँ। हाँ, यदि हो सके तो आप इन बेजबानों के लिए कोई वकील ठीक कर लीजिएगा, नहीं तो संभव है कि इनके ऊपर अन्याय हो जाये।

लाला प्रभाशंकर हतोत्साह होकर इजलास के कमरे से बाहर निकल आये।

२९

इस मुकदमें ने सारे शहर मे हलचल मचा दी। जहाँ देखिए, यह चर्चा थी सभी लोग प्रेमशंकर के आत्म-बलिदान की प्रंशसा सौ-सौ मुँह से कर रहे थे।

यद्यपि प्रेमशंकर ने स्पष्ट कह दिया था कि मेरे लिए किसी वकील की जरूरत नहीं है, पर लाला प्रभाशंकर का जी न माना। उन्हें भय था कि वकील के बिना काम बिगड़ जायेगा। नहीं, यह कदापि नहीं हो सकता। कहीं मामला बिगड़ गया तो लोग यहीं कहेंगे कि लोभ के मारे वकील नहीं किया, उसी का फल है। अपने मन में यही पछतावा होगा। अतएव वह सारे शहर के नामी वकीलों के पास गये। लेकिन कोई भी इस मुकदमे की पैरवी करने पर तैयार न हुआ। किसी ने कहा, मुझे अवकाश नहीं है, किसी ने कोई और ही बहाना करके टाल दिया। सबको विश्वास था कि अधिकारी वर्ग प्रेमशंकर से कुपित हो रहे हैं, उनकी वकालत करना स्वार्थ-नीति के विरुद्ध है। प्रभाशंकर का यह प्रयास सफल न हुआ तो उन्होंने अन्य अभियुक्तों के लिए कोई प्रयत्न नहीं किया। उनकी सहानुभूति अपने परिवार तक ही सीमित थी।

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