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प्रेमाश्रम (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :896
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8589

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‘प्रेमाश्रम’ भारत के तेज और गहरे होते हुए राष्ट्रीय संघर्षों की पृष्ठभूमि में लिखा गया उपन्यास है


प्रेमशंकर ने श्रद्धाभाव से कहा, सैयद साहब की जात कौम के लिए बर्कत है। अंजुमन के लिए १००) की हकीर रकम नजर करता हूँ और यतीमखाने के लिए ५० मन गेहूँ, ५ मन शक्कर और २०) रुपये माहवार।

ईजाद हुसेन– खुदा आपको सबाब अता करे। अगर इजाजत हो तो जनाब का नाम भी ट्रस्टियों में दाखिल कर लिया जाय।

प्रेमशंकर– मैं इस इज्जत के लायक नहीं हूँ।

ईजाद– नहीं जनाब, मेरी यह इल्तजा आपको कबूल करनी होगी। खुदा ने आपकी एक दर्दमन्द दिल अता किया है। क्यों नहीं, आप लाला जटाशंकर मरहूम के खलक हैं जिनकी गरीबपरवरी से सारा शहर मालामाल होता था। यतीम आपको दुआएँ देंगे और अंजुमन हमेशा आपकी ममनून रहेगी?

इर्फान अली ने ज्वालासिंह से पूछा, आपका कमाय यहाँ कब तक रहेगा।

ज्वाला– कुछ अर्ज नहीं कर सकता। आया तो इस इरादे से हूँ कि बाबू प्रेमशंकर की गुलामी में जिन्दगी गुजार दूँ। मुलाजमत से इस्तीफा देना तय कर चुका हूँ।

इर्फान अली– वल्लाह! आप दोनों साहब बड़े जिन्दादिल हैं। दुआ कीजिए कि खुदा मुझे भी कनाअत (सन्तोष) की दौलत अता करे और मैं भी आप लोगों की सोहबत में फैज उठाऊँ।

ज्वालासिंह ने मुस्करा कर कहा, हमारे मुलाजिमों को बरी करा दीजिए, तब हम शबोरोज आपके लिए दुआएँ करेंगे।

इर्फान अली हँस कर बोले, शर्त तो टेढ़ी है, मगर मंजूर है। डॉक्टर चोपड़ा का बयान अपने मुआफिक हो जाय तो बाजी अपनी है।

ईजाद– अब जरा इस गरीब की भी खबर लीजिए। मेरे मुहल्ले में रहते हैं। कपड़े की बड़ी दुकान है। इनके बड़े भाई इनसे बेरुखी से पेश आते हैं। इन्हें जेब खर्च के लिए कुछ नहीं देते। हिसाब भी नहीं दिखाते, सारा नफा खुद हजम कर जाते हैं। कल इन्हें बहुत सख्त सुस्त कहा। जब इनका आधा हिस्सा है, तो क्यों न अपने हिस्से का दावा करें। यह बालिग हैं, अपना फायदा नुकसान समझते हैं, भाई की रोटियों पर नहीं रहना चाहते। बोली, भाई मथुरादास, बारिस्टर साहब से कहो क्या कहते हो?

मथुरादास ने जमीन की तरफ देखा और ईजाद हुसेन की ओर कनखियों से ताकते हुए बोले– मैं यही चाहता हूँ कि भैया से आप मेरी राजी-खुशी करा दें। कल मैंने उन्हें गाली दे दी थी। अब वह कहते हैं, तू ही घर सँभाल, मुझसे कोई वास्ता नहीं। कुंजियाँ सब फेंक दी हैं और दुकान पर नहीं जाते।

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