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प्रेमाश्रम (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :896
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8589

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‘प्रेमाश्रम’ भारत के तेज और गहरे होते हुए राष्ट्रीय संघर्षों की पृष्ठभूमि में लिखा गया उपन्यास है


ज्ञानशंकर ने इसके उत्तर की देश में राजनीतिक परिस्थिति का उल्लेख किया। चलते समय उनसे बड़े निःस्वार्थ भाव से पूछा, लखनपुर के मामले में आपने क्या निश्चय किया? लाश तो आपके यहाँ आयी होगी?

प्रियनाथ– जी हाँ, लाश आयी थी। चिह्न से तो यह पूर्णतः सिद्ध होता है कि यह केवल एक आदमी का काम है, किन्तु पुलिस इसमें कई आदमियों को घसीटना चाहती है। आपसे क्या छिपाऊँ, पुलिस को असन्तुष्ट नहीं कर सकता, लेकिन यों निरपराधियों को फँसाते हुए आत्मा को घृणा होती है।

ज्ञानशंकर– सम्भव है आपने चिह्न से राय स्थिर की है वही मान्य हो, लेकिन वास्तव में यह हत्या कई आदमियों की साजिशों से हुई है। लखनपुर मेरा ही गाँव है।

प्रियनाथ– अच्छा, लखनपुर आपका ही गाँव है। तो यह कारिन्दा आपका नौकर था?

ज्ञान– जी हाँ, और बड़ा स्वामिभक्त, अपने काम में कुशल। गाँववालों को उससे केवल यही चिढ़ थी कि वह उनसे मिलता न था। प्रत्येक विषय में मेरे ही हानि-लाभ का विचार करता था। यह उसकी स्वामिभक्ति का दण्ड है। लेकिन मैं इस घटना को पुलिस की दृष्टि से नहीं देखता। हत्या हो गयी, एक ने की या कई आदमियों मिलकर की। मेरे लिए यह समस्या इससे कहीं जटिल है। प्रश्न ज़मींदार और किसानों का है। अगर हत्याकारियों को उचित दण्ड न दिया गया तो इस तरह की दुर्घटनाएँ आये दिन होने लगेंगी और जमींदारों को अपनी जान बचाना कठिन हो जायेगा।

प्रस्तुत प्रश्न को यह नया स्वरूप दे कर ज्ञानशंकर विदा हुए। यद्यपि हत्या के सम्बन्ध में डॉक्टर साहब की अब भी वही राय थी, लेकिन अब यह गुनाह बेलज्जत न था। ५०० रुपये का पारितोषिक १०० रुपये फीस, साल में हजार-दस हजार मिलते रहने की आशा, उस पर पुलिस की खुशनूदी अलग। अब आगे-पीछे की जरूरत न थी। हाँ, अब अगर भय था तो डॉक्टर इर्फान अली की जिरहों का। डॉक्टर साहब की जिरह प्रसिद्ध थी। अतएव प्रियनाथ ने इस विषय के कई ग्रन्थों का अवलोकन किया और अपने पक्ष समर्थन के तत्त्व खोज निकाले। कितने ही बेगुनाहों की गर्दन पर छुरी फिर जायेगी, इसकी उन्हें एक क्षण के लिए भी चिन्ता न हुई। इस ओर उनका ध्यान ही न गया। ऐसे अवसरों पर हमारी दृष्टि कितनी संकीर्ण हो जाती है?

दिन के दस बजे थे। डॉक्टर महोदय ग्रन्थों की एक पोटली ले कर फिटन पर सवार हो कचहरी चले। उनका दिल धड़क रहा था। जिरह में उखड़ जाने की शंका लगी हुई थी। वहाँ पहुँचते ही मैजिस्ट्रेट ने उन्हें तलब किया। जब वह कटघरे के सामने आ कर खड़े हुए और अभियुक्तों को अपनी ओर दीन नेत्रों से ताकते देखा तो एक क्षण के लिए उनका चित्त अस्थिर हो गया। लेकिन यह एक क्षणिक आवेग था, आया और चला गया। उन्होंने बड़ी तात्त्विक गभीरता, मर्मज्ञतापूर्णभाव से इस हत्याकांड का विवेचन किया। चिह्नों से यह केवल एक आदमी का काम मालूम होता है। लेकिन हत्याकारियों ने बड़ी चालाकी से काम लिया है। इस विषय में वे बड़े सिद्धहस्त हैं। मृत्यु का कारण कुल्हाड़ी या गँड़ासे का आघात नहीं है, बल्कि गले का घोंटना है और कई आदमियों की सहायता के बिना गले का घोंटना असम्भव है। प्राणांत हो जाने पर एक वार से उसकी गर्दन काट ली गयी है। जिसमें यह एक ही व्यक्ति का कृत्य समझा जाय।

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