सदाबहार >> प्रेमाश्रम (उपन्यास) प्रेमाश्रम (उपन्यास)प्रेमचन्द
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‘प्रेमाश्रम’ भारत के तेज और गहरे होते हुए राष्ट्रीय संघर्षों की पृष्ठभूमि में लिखा गया उपन्यास है
ईजाद हुसेन– आप तो जनाब मजाक करते हैं। मैं ऐसा खुशनसीब नहीं हूँ। मगर दुनिया में कैसे-कैसे लोग पड़े हुए हैं जो तर्क का नूरानी जाल फैला कर सोने की चिड़िया फँसा लेते हैं
डॉक्टर साहब ने तिरस्कार की दृष्टि से देखकर कहा– लाला ज्ञानशंकर की निस्बत आप जो चाहे ख्याल करें, लेकिन बाबू प्रेमशंकर जैसे नेकनीयत आदमी पर आपका शुबहा करना बिलकुल बेजा है और जब वह आपके मददगारों में हैं तो आपका उनसे बदगुमान होना सरासर बेइन्साफी है। मैं उन्हें अर्से से जानता हूँ और दावे के साथ कह सकता हूँ कि ऐसा बेलौस आदमी इस शहर में क्या इस मुल्क में मुश्किल से मिलेगा। वह अपने को मशहूर नहीं करते, लेकिन कौम की जो खिदमत कर रहे हैं काश और लोग भी करते तो यह मुल्क रश्के फिर्दोस (स्वर्गतुल्य) हो जाता। जो आदमी दस रुपये माहवार पर जिन्दगी बसर करे, अपने मजदूरों से मसावत (बराबरी) का बर्ताव करे, मजलूमों (अन्याय पीड़ित) की हिमायत करने में दिलोजान से तैयार रहे, अपने उसूलों (सिद्धान्त) पर अपनी जायदाद तक कुर्बान कर दे, उसकी निस्बत ऐसा शक करना शराफत के खिलाफ है, आप उनके मुलाजिमों को सौ रुपए माहवार पर भी रखना चाहें तो न आयेंगे। वह उनके नौकर नहीं हैं, बल्कि पैदावार में बराबर के हिस्सेदार हैं। गायत्री गजब की मर्दुमशनास (आदमियों को पहचानने वाली) औरत मालूम होती है।
ईजाद हुसेन ने चकित हो कर कहा– वाकई वह दस रुपये माहवार पर बसर करते हैं? यह क्योंकर?
इर्फान– अपनी जरूरतों को घटा कर हम और आप तकल्लुफ (विलास) की चीजों को जरूरियात में शामिल किये हुए हैं और रात-दिन उसी फिक्र में परेशान रहते हैं। यह नफ्स (इन्द्रिय) की गुलामी है। उन्होंने इसे अपने काबू में कर लिया है। हम लोग अपनी फुर्सत का वक्त जमाने और तकदीर की शिकायत करने में सर्फ करते हैं। रात-दिन इसी उधेड़-बुन में रहते हैं कि क्योंकर और मिले। और ही हवस हलाल और हराम का भी लिहाज नहीं करते। उन्हें मैंने कभी अपने तकदीर के दुखड़े रोते हुए नहीं पाया। वह हमेशा खुश नजर आते हैं गोया कोई गम ही नहीं...
इतने में बाबू ज्वालासिंह आ पहुँचे। डॉक्टर साहब ने उठ कर हाथ मिलाया। शिष्टाचार के बाद पूछा– अब तो आपका इरादा यहाँ मुस्तकिल तौर पर रहने का है न?
ज्वाला– जी हाँ, आया तो इसी इरादे से हूँ?
इर्फान– फरमाइए, अपील कब होगी?
ज्वाला– इसका जिक्र पीछे करूँगा। इस वक्त तो मुझे सैयद से कुछ अर्थ करना है। हुजूर के दौलतखाने पर हाजिर हुआ था। मालूम हुआ आप तशरीफ रखते हैं। मुझे बाबू प्रेमशंकर ने आपसे यह पूछने के लिए भेजा है कि आप मायाशंकर को उर्दू-फारसी पढ़ाना मंजूर करेंगे।
इर्फान– मंजूर क्यों न करेंगे, घर बैठे-बैठे क्या करते हैं? जलसे तो साल में दस-पाँच ही होते हैं और रोटियों की फिक्र चौबीसों घंटे सिर पर रहती है। तनख्वाह की क्या तजवीज की है?
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