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प्रेमाश्रम (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :896
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8589

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‘प्रेमाश्रम’ भारत के तेज और गहरे होते हुए राष्ट्रीय संघर्षों की पृष्ठभूमि में लिखा गया उपन्यास है


सरकारी वकील ने भी अपने पत्र के अनुकूल खूब जिरह की, सिद्ध करना चाहा कि गाँववालों की धमकी, प्रेमशंकर के आग्रह या इसी प्रकार के अन्य सम्भावित कारणों ने गवाहों को विचलित कर दिया, पर बिसेसर किसी तरह फन्दे में न आया। अँग्रेजी और जातीय पत्रों ने इस घटना की आलोचना करनी शुरू की। अँग्रेजी पत्रों का अनुमान था कि गवाह का यह रूपान्तर राष्ट्रवादियों के दुराग्रह का फल है। उन्होंने पुलिस को नीचा दिखाने के लिए यह चाल खेली है। अदालत ने इस बयान को स्वीकार करने में बड़ी भूल की है। मुखबिर को यथोचित दंड मिलना चाहिए। हिन्दुस्तानी पत्रों को पुलिस पर छींटे उड़ाने का अवसर मिला। अदालत में मुकदमा पेश ही था, मगर पत्रों ने आग्रह करना शुरू किया कि पुलिस के कर्मचारियों से जवाब तलब करना चाहिए। एक मनचले पत्र ने लिखा, यह घटना इस बात का उज्ज्वल प्रमाण है कि हिन्दुस्तान की पुलिस प्रजा-रक्षण के लिए नहीं वरन् भक्षण के लिए स्थापित की गयी है। अगर खोज की जाय तो पूर्णतः सिद्ध हो जायगा कि यहाँ की ८७ सैकड़े दुर्घटनाओं का उत्तरदायित्व पुलिस के सिर है। बाज पत्रों को पुलिस की आड़ में जमींदारों के अत्याचार का भयंकर रूप दिखायी देता था। उन्हें जमींदारों के न्याय पर जहर उगलने का अवसर मिला। कतिपय पत्रों ने जमींदारों की दुरवस्था पर आँसू बहाने शुरू किये। यह आन्दोलन होने लगा कि सरकार की ओर से जमींदारों को ऐसे अधिकार मिलने चाहिए कि वह अपने असामियों को काबू में रख सकें, नहीं तो बहुत सम्भव है कि उच्छृंखलता का यह प्रचंड झोंका सामाजिक संगठन को जड़ से हिला दे।

बिसेसर साह के बाद डॉ. प्रियनाथ की शहादत हुई। पुलिस अधिकारियों को उन पर पूरा विश्वास था, पर जब उनका बयान सुना तो हाथों के तोते उड़ गये। उनके कुतूहल का पारावार न था, मानो किसी नये जगत् की सृष्टि हो गयी। वह पुरुष जो पुलिस का दाहिना हाथ बना हुआ था, जो पुलिस के हाथों की कठपुतली था, जिसने पुलिस की बदौलत हजारों कमाये वह आज यों दगा दे जाये, नीति को इतनी निर्दयता से पैरों तले कुचले।

डॉक्टर साहब ने स्पष्ट कह दिया कि पिछला बयान शास्त्रोक्त न था, लाश के हृदय और यकृती की दशा देखकर मैंने जो धारणा की थी वह शास्त्रानुकूल नहीं थी। बयान देने के पहले मुझे पुस्तकों को देखने का अवसर न मिला था। इन स्थलों में खून का रहना सिद्ध करता है कि उसकी क्रिया आकस्मिक रीति पर बन्द हो गई। यन्त्राघात के पहले गला घोंटने से यह क्रियाक्रम से बन्द होती और इतनी मात्रा में रक्त का जमना सम्भव न था। अपनी युक्ति के समर्थन में उन्होंने कई प्रसिद्ध डॉक्टरों की सम्मति का भी उल्लेख किया। डॉ. इर्फान अली ने भी इस विषय पर कई प्रामाणिक ग्रंथों का अवलोकन किया था। उनकी जिरहों ने प्रियनाथ की धारणा को और भी पुष्ट कर दिया। तीसरे दिन सरकारी वकील की जिरह शुरू हुई। उन्होंने जब वैद्यत प्रश्नों से प्रियनाथ को काबू में आते न देखा तब उनकी नीयत पर आक्षेप करने लगे।

वकील– क्या यह सत्य है कि पहले जिस दिन अभियोग का फैसला सुनाया गया था उस दिन उपद्रवकारियों ने आपके बँगले पर जाकर आपको घेर लिया था?

प्रिय– जी हाँ।

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