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प्रेमाश्रम (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :896
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8589

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‘प्रेमाश्रम’ भारत के तेज और गहरे होते हुए राष्ट्रीय संघर्षों की पृष्ठभूमि में लिखा गया उपन्यास है


इस तर्क-वितर्क में गायत्री बद्रीनाथ की यात्रा पर आरूढ़ न हो सकी। हृषीकेश में पड़े-पड़े तीन महीने गुजर गये और हेमन्त सिर पर आ पहुँचा, यात्रा दुस्साध्य हो गयी।

पौष मास था, पहाड़ों पर बर्फ गिरने लगी थी। प्रातःकाल की सुनहरी किरणों मे तुषार-मंडित पर्वत श्रेणियों की शोभा अकथनीय थी। एक दिन गायत्री ने सुना कि चित्रकूट में कहीं से ऐसे महात्मा आये हैं जिनके दर्शन-मात्र से ही आत्मा तृप्त हो जाती है। वह उपदेश बहुत कम करते हैं, लेकिन उनका दृष्टिपात उपदेशों से भी ज्यादा सुधावषी होता है। उनके मुख मुण्डल पर ऐसी कान्ति है मानों तपाया हुआ कुन्दन हो। दूध ही उनका आहार है और वह भी एक छटाँक से अधिक नहीं, पर डीलडौल और तेज ऐसा है कि ऊँची से ऊँची पहाड़ियों पर खटाखट चढ़ते चले जाते हैं, न दम फूलता है, न पैर काँपते हैं, न पसीना आता है। उनका पराक्रम देखकर अच्छे-अच्छे योगी भी दंग रह जाते हैं। पसूनी के गलते हुए पानी में पहर रात से ही खड़े हो कर दो-तीन घंटे तक तप किया करते हैं। उनकी आँखों में कुछ ऐसा आकर्षण है कि वन के जीवधारी भी उनके इशारों पर चलने लगते हैं। गायत्री ने उनकी सिद्धि का यह वृत्तांत सुना तो उसे उनके दर्शनों की प्रबल उत्कंठा हुई। उसने दूसरे ही दिन चित्रकूट ही राह ली और चौथे दिन पसूनी के तट पर एक धर्मशाला में बैठी हुई थी।

यहाँ जिसे देखिये वही स्वामी जी का कीर्तिगान कर रहा था, भक्त जन-दूर-दूर से आये हुए थे। कोई कहता था यह त्रिकालदर्शी हैं, कोई उन्हें आत्मज्ञानी बतलाता था। गायत्री उनकी सिद्धि की कथाएँ सुन कर इतनी विह्वल हुई कि इसी दम जा कर उनके चरणों पर सिर रख दे, लेकिन रात से मजबूर थी। वह सारी रात करवटें बदलती और सोचती रही कि मैं मुँह अँधेरे जा कर महात्मा जी के पैरों पर गिर पड़ूँगी कि महाराज, मैं अभागिनी हूँ, आप आत्मज्ञानी हैं, आप सर्वज्ञ हैं, मेरा हाल आपसे छिपा हुआ नहीं है, मैं अथाह जल में डूबी जाती हूँ, अब आप ही मुझे उबार सकते हैं। मुझे ऐसा उपदेश दीजिए और मेरी निर्बल आत्मा को इतनी शक्ति प्रदान कीजिए कि वह माया-मोह के बन्धनों से मुक्त हो जाय। मेरे हृदय-स्थल में अन्धकार छाया हुआ है, उसे आप अपनी व्यापक ज्योति से आलोकित कर दीजिए। इस दीन कल्पना से गद्गद हो कर घंटों रोती रही। उसकी कल्पना इतनी सजग हो गयी कि स्वामी जी के आश्वासन शब्द भी उसके कानों में गूँजने लगे। ज्यों ही उनके चरणो पर गिरूँगी वह प्रेम से मेरे सिर पर हाथ रख कर कहेंगे, बेटी, तुझ पर बड़ी विपत्ति पड़ी है, ईश्वर तेरा कल्याण करेंगे। जाड़े की लम्बी रात किसी भाँति कटती ही न थी। यह बार-बार उठ कर देखती तड़का तो नहीं हो गया है, लेकिन आकाश में जगमगाते हुए तारों को देख कर निराश हो जाती थी। पाँचवी बार जब उठी तो पौ फट रही थी। तारागण किसी मधुर गान के अन्तिम स्वरों की भाँति लुप्त होते जाते थे। आकाश एक पीतवस्त्रधारी योगी की भाँति था जिसका मुखकमल आत्मोल्लास से खिला हुआ हो और पृथ्वी एक माया-रहस्य थी, ओर के नीले पर्दे में छिपी हुई गायत्री ने तुरन्त पसूनी में स्नान किया और स्वामी जी के दर्शन करने चली।

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