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प्रेमाश्रम (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :896
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8589

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‘प्रेमाश्रम’ भारत के तेज और गहरे होते हुए राष्ट्रीय संघर्षों की पृष्ठभूमि में लिखा गया उपन्यास है


गायत्री– वहाँ तक जाकर के लौटना अच्छा नहीं लगता।

ज्ञान– मैंने तो सब कुछ इन्हीं की इच्छा पर छोड़ दिया।

गायत्री– क्या वहाँ कोई आराम कुर्सी न मिल जायेगी?

विद्या– यह सब झंझट करने की जरूरत ही क्या है? मैं लौट आऊँगी। मैं तमाशा देखने को उत्सुक न थी, तुम्हारी खातिर से चली आयी थी।

थिएटर का पण्डाल आ गया। खूब जमाव था। ज्ञानशंकर उतर पड़े। गायत्री ने विद्या से उतरने, को कहा, पर वह आग्रह करने पर भी न उठी। कोचवान को पानी लाने को भेजा। इतने में ज्ञानशंकर लपके हुए आये, और बोले– भाभी, जल्दी कीजिए, घण्टी हो गयी। तमाशा आरम्भ होने वाला है। जब तक यह माया को पानी पिलाती है, आप चल कर बैठ जाइए नहीं तो शायद जगह ही न मिले।

यह कहकर वह गायत्री को लिये हुए पण्डाल में घुस गये। पहले दरजे के मरदाने और जनाने भागों के बीच में केवल एक चिक का परदा था। चिक के बाहर ज्ञानशंकर बैठे और चिक के पास ही भीतर गायत्री को बैठाया। वहीं दोनों जगहें उन्होंने रिजर्व (स्वरक्षित) करा रखी थीं।

गायत्री जल्दी से गाड़ी से उतरकर ज्ञानशंकर के साथ चली आयी थी। विद्या अभी आयेगी, यह उसे निश्चय था। लेकिन जब उसे बैठे कई मिनट हो गये, विद्या न दिखाई दी और अन्त में ज्ञानशंकर ने आकर कहा, वह चली गयी, तो उसे बड़ा क्षोभ हुआ। समझ गयी कि वह रूठकर चली गयी। अपने मन में मुझे ओछी, निष्ठुर समझ रही होगी। मुझे भी उसी के साथ लौट जाना चाहिए था। उसके साथ तमाशा देखने में हर्ज नहीं था। लोग यह अनुमान करते हैं कि मैं उसकी खातिर से आयी हूँ, किन्तु उसके लौट जाने पर मेरा यहाँ रहना सर्वथा अनुचित है। घर की लौंडिया और महरियाँ तक हँसेंगी और हँसना यथार्थ है, दादा जी न जाने मन में क्या सोचेंगे मेरे लिए अब तीर्थ-यात्रा, गंगा-स्नान पूजा-पाठ, दान और व्रत है। यह विहार-विलास सोहागिन के लिए है। मुझे अवश्य लौट जाना चाहिए। लेकिन बाबूजी से इतनी जल्द लौटने को कहूँगी तो वह मुझ पर अवश्य झुँझलायेंगे कि नाहक इसके साथ आया। बुरी फँसी। कुछ देर यहाँ बैठे बिना अब किसी तरह छुटकारा न मिलेगा।

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