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रंगभूमि (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :1153
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8600

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नौकरशाही तथा पूँजीवाद के साथ जनसंघर्ष का ताण्डव; सत्य, निष्ठा और अहिंसा के प्रति आग्रह, ग्रामीण जीवन में उपस्थित मद्यपान तथा स्त्री दुर्दशा का भयावह चित्र यहाँ अंकित है


सुभागी–मुझसे कसम ले लो, जो प्याज हाथ से भी छुआ हो। ऐसी जीभ होती, तो इस घर में एक दिन भी निबाह न होता।

भैरों–प्याज नहीं था, तो लाई क्यों नहीं?

जगधर–जो चीज घर में न रहे, उसकी फिकर रखनी चाहिए।

सुभागी–मैं क्या जानती थी कि आज आधी रात को प्याज की धुन सवार होगी।
भैरों ताड़ी के नशे में था। नशे में भी क्रोध का-सा गुण है, निर्बलों ही पर उतरता है। डंडा पास ही धरा था, उठाकर एक डंड़ा सुभागी को मारा। उसके हाथ की सब चूड़िया टूट गईं। घर से भागी। भैरों पीछे दौड़ा। सुभागी एक दुकान की आड़ में छिप गई। भैरों ने बहुत ढूंढ़ा, जब उसे न पाया तो घर जाकर किवाड़ बंद कर लिए और फिर रात भर खबर न ली। सुभागी ने सोचा, इस वक्त जाऊंगी तो प्राण न बचेंगे। पर रात-भर रहूंगी कहां? बजरंगी के घर गई। उसने कहा–ना, बाबा, मैं यह रोग नहीं पालता। खोटा आदमी है, कौन उससे रार मोल ले ! ठाकुरदीन के द्वार बंद थे। सूरदास बैठा खाना पका रहा था। उसकी झोपड़ी में घुस गई और बोली–सूरे, आज रात-भर मुझे पड़े रहने दो, मारे डालता है, अभी जाऊंगी, तो एक हड्डी भी न बचेगी।

सूरदास ने कहा–आओ, लेट रहो, भोरे चली जाना, अभी नसे में होगा।
दूसरे दिन जब भैरों को यह बात मालूम हुई, तो सूरदास से गाली-गलौज की और मारने की धमकी दी। सुभागी उसी दिन से सूरदास पर स्नेह करने लगी। जब अवकाश पाती, तो उसके पास आ बैठती, कभी-कभी उसके घर में झाडू लगा जाती, कभी घरवालों की आंख बचाकर उसे कुछ दे जाती, मिठुआ को अपने घर बुला ले जाती और उसे गुड़-चबेना खाने को देती।

भैरों ने कई बार उसे सूरदास के घर से निकलते देखा। जगधर ने दोनों को बातें करते हुए पाया। भैरों के मन में संदेह हो गया कि जरूर इन दोनों में कुछ साठ-गांठ हैं, तभी से वह सूरदास से खार खाता था। उससे छेड़कर लड़ता। नायकराम के भय से उसकी मरम्मत न कर सकता था। सुभागी पर उसका अत्याचार दिनोंदिन बढ़ता जाता था और जगधर, शांत स्वभाव होने पर भी, भैरों का पक्ष लिया करता था।

जिस दिन बजरंगी और ताहिर अली में झगड़ा हुआ था, उसी दिन भैरों और सूरदास में संग्राम छिड़ गया। बुढ़िया दोपहर को नहाई थी, सुभागी उसकी धोती छांटना भूल गई। गरमी के दिन थे ही, रात को ९ बजे बुढ़िया को फिर गरमी मालूम हुई। गरमियों के दिनों में दो बार स्नान करती थी, जाड़ों में दो महीने में एक बार ! जब वह नहाकर धोती मांगने लगी, तो सुभागी को याद आई। काटो तो बदन में लहू नहीं। हाथ जोड़कर बोली–अम्मां, आज धोती धोने की याद नहीं रही। तुम जरा देर मेरी धोती पहन लो, तो मैं उसे छांटकर अभी सुखाए देती हूं।

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