सदाबहार >> रंगभूमि (उपन्यास) रंगभूमि (उपन्यास)प्रेमचन्द
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नौकरशाही तथा पूँजीवाद के साथ जनसंघर्ष का ताण्डव; सत्य, निष्ठा और अहिंसा के प्रति आग्रह, ग्रामीण जीवन में उपस्थित मद्यपान तथा स्त्री दुर्दशा का भयावह चित्र यहाँ अंकित है
यों बातें करते हुए दोनों अपने-अपने घर गए। रात के दो बजे होंगे कि अकस्मात् सूरदास की झोंपड़ी से ज्वाला उठी। लोग अपने-अपने द्वारों पर सो रहे थे। निद्रावस्था में भी उपचेतना जागती रहती है। दम-के-दम में सैकड़ों आदमी जमा हो गए। आसमान पर लाली छाई हुई थी, ज्वालाएं लपक-लपककर आकाश की ओर दौड़ने लगीं। कभी उनका आकार किसी मंदिर के स्वर्ण-कलश का-सा हो जाता था, कभी वे वायु के झोकों से यों कंपित होने लगती थीं, मानो जल में चांद का प्रतिबिंब है। आग बुझाने का प्रयत्न किया जा रहा था; पर झोंपड़े की आग, ईर्ष्या की आग की भांति कभी नहीं बुझती। कोई पानी ला रहा था, कोई यों ही शोर मचा रहा था; किंतु अधिकांश लोग चुपचाप खड़े नैराश्यपूर्ण दृष्टि से अग्निदाह को देख रहे थे, मानो किसी मित्र की चिताग्नि है।
सहसा सूरदास दौड़ा हुआ आया और चुपचाप ज्वाला के प्रकाश में खड़ा हो गया।
बजरंगी ने पूछा–यह कैसे लगी सूरे, चूल्हे में तो आग नहीं छोड़ दी थी?
सूरदास–झोंपड़े में जाने का कोई रास्ता ही नहीं है?
बजंरगी–अब तो अंदर-बाहर सब एक हो गया है। दीवारें जल रही हैं।
सूरदास–किसी तरह नहीं जा सकता?
बजरंगी–कैसे जाओगे? देखते नहीं हो, यहां तक लपटें आ रही हैं !
जगधर–सूरे, क्या आज चूल्हा ठंडा नहीं किया था?
नायकराम–चूल्हा ठंडा किया होता, तो दुसमनों का कलेजा कैसे ठंडा होता।
जगधर–पंडाजी, मेरा लड़का काम न आए, अगर मुझे कुछ भी मालूम हो। तुम मुझ पर नाहक सुभा करते हो।
नायकराम–मैं जानता हूं जिसने लगाई है। बिगाड़ न दूं, तो कहना।
ठाकुरदीन–तुम क्या बिगाड़ोगे, भगवान आप ही बिगाड़ देंगे। इसी तरह जब मेरे घर में चोरी हुई थी, तो सब स्वाहा हो गया।
जगधर–जिसके मन में इतनी खटाई हो, भगवान उसका सत्यानाश कर दें।
सूरदास–अब तो लपट नहीं आती।
बजरंगी–हां, फूस जल गया, अब धरन जल रही है।
सूरदास–अब तो अंदर जा सकता हूं?
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