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रूठी रानी (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :278
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8610

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रूठी रानी’ एक ऐतिहासिक उपन्यास है, जिसमें राजाओं की वीरता और देश भक्ति को कलम के आदर्श सिपाही प्रेमचंद ने जीवन्त रूप में प्रस्तुत किया है


ज्योतिषी– ‘‘अपनी तरफ से तो तब दान कराया जाता जब बाई के ग्रह खराब होते।’’

रावल– ‘‘आज बाई जी का ग्रह कैसा है?’’

ज्योतिषी– ‘‘बहुत अच्छा, बहुत शुभ। फिर औरत के ग्रहों का अच्छा या बुरा होना अधिकतर उसके पति के ग्रहों पर आधारित होता है। इसलिए बाई जी का भी वही ग्रह समझना चाहिए जो राव जी का है।’’

रावल– ‘‘अच्छा तो बारात में हो आइए। देर न कीजिएगा, यहां भी काम है।’’

ज्योतिषी– (चुटकी बजाकर) ‘‘गया और आया।’’

रावल से हुकुम पाकर ज्योतिषी जी खुश-खुश वहां से चले। राव मालदेवजी को खबर हुई कि ज्योतिषी राघो जी आते हैं। राव जी ने कहा– ‘‘उनका बड़े सम्मान से स्वागत करो। वे बड़े नामी ज्योतिषी हैं। वे क्या, उनके बेटे चण्डो भी ज्योतिषी विद्या के बड़े पण्डित हैं।’’

चोबदार और ड्योढ़ीदार दौड़े और ज्योतिषी जी को हाथों हाथ ले आए। ज्योतिषीजी आशीर्वाद देकर बैठ गए। राव जी ने कुशल-मंगल पूछकर कहा आपने कैसे आने का कष्ट किया?

ज्योतिषी– (इधर-उधर देखकर) ‘‘कुछ साइत विचारनी है।’’

यह सुनते ही लोग हट गए। ज्योतिषी जी राव साहब से दो-दो बातें कर चल दिए। राव जी को बड़ी चिन्ता हुई, फौरन सरदारों को बुलाकर सलाह-मशविरा किया कि ऐसी हालत में क्या करना चाहिए।

इतने में नक्कारों की आवाज आयी, चौतरफा शोर मचने लगा कि रावल जी की सवारी आई। तब राव जी भी सिर पर मौर और माथे पर सेहरा बांधकर अपने डेरे से बाहर निकले और घोड़े की पूजा करके उस पर सवार हुए। बारात चढ़ी, कुछ दूर जाकर सब जुलूस थम गया। फर्श-फरूश तकिया-मसनद लगा दिए गए। रावल और राव दोनों अपने-अपने घोड़ों से उतरे और गले मिले। फिर निशान का हाथी आगे की तरफ बढ़ा और उसके साथ दोनों महाराजे किले की तरफ चले। दरवाजे पर पहुँचकर रावल जी तो अन्दर तशरीफ ले गए और राव जी तोरन बांधने की रसम अदा करके पीछे पहुंचे। रनिवास में फिर दोनों मिलकर एक साथ मसनद पर बैठे।

राजमहल में शादी की तैयारी हो गई। नाजिर राव जी को बुलाने आया। राव जी के साथ रावल जी भी उठे मगर राव के सरदारों ने उन्हें रोका कि आप हमें अकेला छोड़कर कहां जा रहे हैं। रावल ने झांसा देकर कहा कि यहां से चला जाऊं, मगर कौन जाने देता है। राव के सरदारों ने उनका हाथ पकड़कर बीच में बिठा लिया। अब तो लेने के देने पड़ गए। जाते थे राव को मारने, अब अपनी ही जान के लाले पड़ गए। उनके सरदार भी सब सिट्टी-पिट्टी भूल गए। इधर राव जी बेखटके धीरे से रनिवास में दाखिल हो गए।

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