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नाटक-एकाँकी >> संग्राम (नाटक) संग्राम (नाटक)प्रेमचन्द
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मुंशी प्रेमचन्द्र द्वारा आज की सामाजिक कुरीतियों पर एक करारी चोट
[ज्ञानी हाथ जोड़कर सजल नेत्रों से ताकती है, कंठ से शब्द नहीं निकलता। सबल तुरत मेज पर से पिस्तौल उठाकर बाहर निकल जाता है।]
ज्ञानी– (मन में) हताश होकर चले गये। मैं तस्कीन दे सकती, उन्हें प्रेम के बंधन से रोक सकती तो शायद न जाते। मैं किस मुंह से कहूं कि यह अभागिनी पतिता तुम्हारे चरणों का स्पर्श करने योग्य नहीं है। वह समझते हैं, उनका तिरस्कार कर रही हूं, उनसे घृणा कर रही हूं? उनके इरादे में अगर कुछ कमजोरी थी तो वह मैंने पूरी कर दी। इस यज्ञ की पूर्णाहुति मुझे करनी पड़ी। हा विधाता, तेरी लीला अपरम्पार है। जिस पुरुष पर इस समय मुझे अपना प्राण अर्पण करना चाहिए था मैं आज उसकी घातिका हो रही हूं। हां अर्थ-लोलुपता! तूने मेरा सर्वनाश कर दिया। मैंने संतान-लालसा के पीछे कुल को कलंक लगा दिया, कुल को धूल में मिला दिया। पूर्वजन्म में न जाने मैंने कौन-सा पाप किया था। चेतनदास, तुमने मेरी सोने की लंका दहन कर दी। मैंने तुम्हें देवता समझ कर तुम्हारी आराधना की थी। तुम राक्षस निकले। जिस रूखार को मैंने बाग समझा था वह बीहड़ निकला। मैंने कमल का फूल तोड़ने के लिए पैर बढ़ाये थे, दलदल में फंस गयी, जहां से अब निकलना दुस्तर है। पतिदेव ने चलते समय मेज पर से कुछ उठाया था। न जाने कौन सी चीज थी। काली घटा छायी हुई है। हाथ को हाथ नहीं सूझता। वह कहां गये। भगवन कहां जाऊं? किससे पूछूं, क्या करूं? कैसे उनकी प्राण-रक्षा करूं? हो न हो राजेश्वरी के पास गये! वही इस लीला का अन्त होगा। उसके प्रेम में विहृल हो रहे है। अभी उनकी आशा वहां लगी हुई है। मृग-तृष्णा है। वह नीच जाति की स्त्री है, पर सती है। अकेले इस अंधेरी रात में वहां कैसे पहुंचूंगी। कुछ भी हो, यहां नहीं रहा जाता। बग्घी पर गयी थी। रास्ता कुछ-कुछ याद है। ईश्वर के भरोसे पर चलती हूं। या तो वहां पहुंच ही जाऊंगी या इसी टोह में प्राण दे दूंगी। एक बार मुझे उनके दर्शन हो जाते तो जीवन सफल हो जाता। मैं उनके चरणों पर प्राण त्याग देती। यही अन्तिम लालसा है। दयानिधि, मेरी अभिलाषा पूरी करो। हा, जननी धरती, तुम क्यों मुझे अपनी गोद में नहीं ले लेती! दीपक का ज्वाला-शिखर क्यों मेरे शरीर को भस्म नहीं कर डालता! यह भयंकर अंधकार क्यों किसी जल-जंतु की भांति मुझे अपने उदर में शरण नहीं देता।
[प्रस्थान]
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