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संग्राम (नाटक)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :283
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8620

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मुंशी प्रेमचन्द्र द्वारा आज की सामाजिक कुरीतियों पर एक करारी चोट


हलधर– हां, यह तो पहले ही सोच चुका हूं, पर तुम्हारा कंगन बनना तो जरूरी है। चार आदमी ताने देने लगेंगे तो क्या करोगी?

राजेश्वरी– इसकी चिंता मत करो, मैं उनका जवाब दे लूंगी, लेकिन मेरी तो जाने की इच्छा ही नहीं है। जाने और बहुएं कैसे मैके जाने को व्याकुल होती हैं, मेरा तो अब वहां एक दिन भी जी नहीं लगेगा। अपना घर सबसे अच्छा लगता है। उसकी तुलसी का चबूतरा जरूर बनवा देना, उसके आस-पास बेला, चमेली, गेंदा और गुलाब के फूल लगा दूंगी तो आंगन की शोभा बढ़ जायेगी!

हलधर– वह देखो, तोतों का झुंड मटर पर टूट पड़ा।

राजेश्वरी– मेरा भी जी एक तोता पालने का चाहता है। उसे पढ़ाया करूंगी।

[हलधर गुलेल उठा कर तोतो की ओर चलाता है।]

राजेश्वरी– छोड़ना मत, बस दिखाकर उड़ा दो।

हलधर– वह मारा! एक गिर गया।

राजेश्वरी– राम-राम, यह तुमने क्या किया? चार दानों के पीछे उसकी जान ही ले ली। यह कौन-सी भलमनसी है?

हलधर– (लज्जित होकर) मैंने जान कर नहीं मारा।

राजेश्वरी– अच्छा तो इसी दम गुलेल तोड़ फेंक दो। मुझसे यह देखा नहीं जाता। किसी पशु-पक्षी को तड़पते देखकर मेरे रोयें खड़े हो जाते हैं। मैंने तो दादा को एक बार बैल की पूंछ मरोड़ते देखा था। रोने लगी। जब दादा ने वचन दिया कि अब भी बैलों को न मारूंगा तब जाके चुप हुई। मेरे गाँव में सब लोग औंगी से बैलों को हांकते हैं। मेरे घर कोई मजूर भी औंगी नहीं चला सकता।

हलधर– आज से परन करता हूं कि कभी किसी जानवर को न मारूंगा।

(फत्तू मियां का प्रवेश)

फत्तू– हलधर! नजर नहीं लगाता, पर अब की तुम्हारी खेती गांव-भर से ऊपर है। तुमने जो आम लगाये हैं वे भी खूब बौरे हैं।

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