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संग्राम (नाटक)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :283
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8620

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मुंशी प्रेमचन्द्र द्वारा आज की सामाजिक कुरीतियों पर एक करारी चोट


राजेश्वरी– ईसाई मत में आ गये?

हलधर– नहीं, असनान, ध्यान सब करते हैं। गऊ को कौरा दिये बिना कौर नहीं उठाते। कथा-पुराण सुनते हैं। लेकिन खाने-पीने में भ्रष्ट हो गये हैं।

राजेश्वरी– उँह, होगा, हमें कौन उनके साथ बैठकर खाना है। किसी दिन बुलावा भेज देना। उनके मत की बात रह जायेगी।

हलधर– खूब मन लगा के बनाना।

राजेश्वरी– जितना सहूर है उतना करूंगी। जब वह इतने प्रेम से भोजन करने आयेंगे तो कोई बात उठा थोड़े ही रखूंगी। बस इसी एकादशी को बुला भेजो, अभी पांच दिन हैं।

हलधर– चलो पहले घर की सफाई तो कर डालें।

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