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सामाजिक कहानियाँ >> सप्त सुमन (कहानी-संग्रह)

सप्त सुमन (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :164
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8626

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मुंशी प्रेमचन्द की सात प्रसिद्ध सामाजिक कहानियाँ


ज्ञानप्रकाश के सिवा उसके पास और किसी के पत्र न आते थे। आज ही उसका पत्र आ चुका था। यह दूसरा पत्र क्यों? किसी अनिष्ट की आशंका हुई। पत्र लेकर पढ़ने लगा। एक क्षण में पत्र उसके हाथ से छुटकर गिर पड़ा और वह सिर थामकर बैठ गया कि ज़मीन पर गिर पड़े। यह देवप्रिया की विषयुक्त लेखनी से निकला हुआ जहर का तीर था, जिसने एक पल में उसे संज्ञाहीन कर दिया।

उसकी सारी मर्मांतक व्यथा– क्रोध, नैराश्य, कृतघ्नता, ग्लानि– केवल एक ठंड़ी साँस में समाप्त हो गई।

वह जाकर चारपाई पर लेट रहा। मानसिक व्यथा आप से आप पानी हो गई। हा! सारा जीवन नष्ट हो गया। मैं ज्ञानप्रकाश का शत्रु हूँ? मैं इतने दिनों से केवल उसके जीवन को मिट्टी में मिलाने के लिए ही प्रेम का स्वाँग भर रहा हूँ? भगवान! तुम्हीं इसके साक्षी हो!

तीसरे दिन फिर देवप्रिया का पत्र पहुँचा। सत्यप्रकाश ने उसे लेकर फाड़ डाला। पढ़ने की हिम्मत न पड़ी।

एक ही दिन पीछे तीसरा पत्र पहुँचा। उसका भी वही अंत हुआ। फिर तो यह एक नित्य कर्म हो गया। पत्र आता और फाड़ दिया जाता। किंतु देवप्रिया का अभिमान बिना पढ़े ही पूरा हो जाता था—सत्यप्रकाश के मर्मस्थान पर एक चोट और पड़ जाती थी।

एक महीने की भीषण हार्दिक वेदना के बाद सत्यप्रकाश को जीवन से घृणा हो गई। उसने दूकान बन्द कर दी, बाहर आना– जाना छोड़ दिया। सारे दिन खाट पर पड़ा रहता। वे दिन याद आते, जब माता पुचकारकर गोद में बिठा लेती और कहती– बेटा! पिता संध्या– समय दफ्तर से आकर गोद में उठा लेते और कहते– भैया! माता की सजीव मूर्ति उसके सामने आ खड़ी होती, ठीक वैसी ही जब वह गंगास्नान करने गयी थी। उसकी प्यार भरी बातें कानों में गूँजने लगतीं। फिर वह दृश्य सामने आता, जब उसने नववधू माता को ‘अम्माँ’ कहकर पुकारा था। तब कठोर शब्द याद आ जाते, उसके क्रोध से भरे हुए विशाल नेत्र आँखों के सामने आ जाते। उसे अपना सिसक– सिसककर रोना याद आ जाता। फिर सौर गृह का दृश्य सामने आता। उसने कितने प्रेम से बच्चे को गोद में लेना चाहा था! तब माता के वज्र के– से शब्द कानों में गूँजने लगते। हाय! उसी वज्र ने मेरा सर्वनाश कर दिया! ऐसी कितनी ही घटनाएँ याद आतीं, जब बिना किसी अपराध के माँ डाँट बताती। पिता का निर्दय, निष्ठुर व्यवहार याद आने लगता। उनका बात– बात पर त्योरियाँ बदलना, माता के मिथ्यापवादों पर विश्वास करना– हाय! मेरा सारा जीवन नष्ट हो गया! तब वह करवट बदल लेता, और फिर वही दृश्य आँखों में फिरने लगते। फिर करवट बदलता, और चिल्ला उठता– इस जीवन का अंत क्यों नहीं हो जाता।

इस भाँति पड़े– पड़े उसे कई दिन हो गए। संध्या हो गई थी। सहसा उसे द्वार पर किसी के पुकारने की आवाज सुनाई पड़ी। उसने कान लगाकर सुना, और चौंक पड़ा– कोई परिचित आवाज थी। दौड़ा, द्वार पर आया, तो देखा, ज्ञानप्रकाश खड़ा है। कितना रूपवान पुरुष था! वह उसके गले में लिपट गया।

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