| उपन्यास >> सेवासदन (उपन्यास) सेवासदन (उपन्यास)प्रेमचन्द
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यह उपन्यास घनघोर दानवता के बीच कहीं मानवता का अनुसंधान करता है
शर्माजी– जी नहीं, किराए की गाड़ी की आवश्यकता नहीं पड़ेगी। मेरे भतीजे ने एक सब्जा घोड़ा ले रखा है, उसी पर बैठकर चला जाया करूंगा।
विटठलदास– अरे वही तो नहीं है, जो कभी-कभी शाम को चौक में घूमने निकला करता है?
शर्माजी– संभव है, वही हो।
विट्ठलदास– सूरत आपसे बहुत मिलती है, धारीदार सर्ज का कोट पहनता है, खूब हृष्ट-पुष्ट है, गोरा रंग, बड़ी-बड़ी आंखें, कसरती जवान है।
शर्माजी– जी हां, हुलिया तो आप ठीक बताते हैं। वही है।
विट्ठलदास– आप उसे बाजार में घूमने से रोकते क्यों नहीं?
शर्माजी– मुझे क्या मालूम, कहां घूमने जाता है। संभव है, कभी-कभी बाजार की तरफ चला जाता हो; लेकिन लड़का सच्चरित्र है, इसलिए मैंने कभी चिंता नहीं की।
विट्ठलदास– यह आपसे बड़ी भूल हुई। पहले वह चाहे जितना सच्चरित्र हो, लेकिन आजकल उसके रंग अच्छे नहीं हैं। मैंने उसे एक बार नहीं, कई बार वहां देखा है, जहां न देखना चाहिए था। सुमनबाई के प्रेमजाल में पड़ा हुआ मालूम होता है।
शर्माजी के होश उड़ गए। बोले– यह तो आपने बुरी खबर सुनाई। वह मेरे कुल का दीपक है। अगर वह कुपथ पर चला, तो मेरी जान ही पर बन जाएगी। मैं शरम के मारे भाई साहब को मुंह न दिखा सकूंगा।
यह कहते-कहते शर्माजी की आंखें सजल हो गईं। फिर बोले– महाशय उसे किसी तरह समझाइए। भाई साहब के कानों में इस बात की भनक भी गई, तो वह मेरा मुंह न देखेंगे।
विट्ठलदास– नहीं, उसे सीधे मार्ग पर लाने के लिए उद्योग किया जाएगा। मुझे आज तक मालूम ही न था कि वह आपका भतीजा है। मैं आज ही इस काम पर उतारू हो जाऊंगा और सुमन कल तक वहां से चली आई, तो वह आप ही संभल जाएगा। 
शर्माजी– सुमन के चले आने से थोड़े ही बाजार खाली हो जाएगा। किसी दूसरी के पंजे में फंस जाएगा। क्या करूं, उसे घर भेज दूं?
			
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