लोगों की राय

उपन्यास >> सेवासदन (उपन्यास)

सेवासदन (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :535
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8632

Like this Hindi book 10 पाठकों को प्रिय

361 पाठक हैं

यह उपन्यास घनघोर दानवता के बीच कहीं मानवता का अनुसंधान करता है


इस प्रकार पूरा एक साल बीत गया। उमानाथ दौड़ते-दौड़ते तंग आ गए, यहां तक कि उनकी दशा औषधियों के विज्ञापन बांटनेवाले उस मनुष्य की-सी हो गई, जो दिन भर बाबू-संप्रदाय को विज्ञापन देने के बाद संध्या को अपने पास विज्ञापनों का भारी पुलिंदा पड़ा हुआ पाता है और उस बोझ से मुक्त होने के लिए उन्हें सर्वसाधारण को देने लगता है। उन्होंने मान, विद्या, रूप और गुण की ओर से आंखें बंद करके केवल कुलीनता को पकड़ा। इसे वह किसी भांति न छोड़ सकते थे।

माघ का महीना था। उमानाथ स्नान करने गए। घर लौटे तो गंगाजली के पास जाकर बोले– लो बहन, मनोरथ पूरा हो गया। बनारस में विवाह ठीक हो गया।

गंगाजली– भला, किसी तरह तुम्हारी दौड़-धूप तो ठिकाने लगी। लड़का पढ़ता है न?

उमानाथ– पढ़ता नहीं, नौकर है। एक कारखाने में पंद्रह रुपये का बाबू है।

गंगाजली– घर-द्वार है न?

उमानाथ– शहर में किसके घर होता है। सब किराए के घर में रहते हैं।

गंगाजली– भाई-बन्द, मां-बाप हैं?

उमानाथ– मां-बाप दोनों मर चुके हैं और भाई-बन्द शहर में किसके होते हैं?

गंगाजली– उम्र क्या है?

उमानाथ– यही, कोई तीस साल के लगभग होगी।

गंगाजली– देखने-सुनने में कैसा है?

उमानाथ– सौ में एक। शहर में कोई कुरूप तो होता ही नहीं। सुंदर बाल, उजले कपड़े सभी के होते हैं और गुण, शील, बातचीत का तो पूछना ही क्या! बात करते मुंह से फूल झड़ते हैं। नाम गजाधरप्रसाद है।

गंगाजली– तो दुआह होगा?

उमानाथ– हां, है तो दुआह, पर इससे क्या? शहर में कोई बुड्ढा तो होता ही नहीं। जवान लड़के होते हैं और बुड्ढे जवान, उनकी जवानी सदाबहार होती है। वही हंसी-दिल्लगी, वही तेल-फुलेल का शौक। लोग जवान ही रहते हैं और जवान ही मर जाते हैं।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book