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सेवासदन (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :535
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8632

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यह उपन्यास घनघोर दानवता के बीच कहीं मानवता का अनुसंधान करता है


कृष्णचन्द्र फिर बोले– तुम दरिद्र थे। इसमें तुम्हारा कोई दोष नहीं। तुम अगर अपनी स्त्री का उचित रीति से पालन-पोषण नहीं कर सके, तो इसके लिए तुम्हें दोषी नहीं ठहराता। तुम उसके मनोभावों को नहीं जान सके, उसके सद्विचारों का मर्म नहीं समझ सके, इसके लिए भी मैं तुम्हें दोषी नहीं ठहराता। तुम्हारा अपराध यह है कि तुमने उसे घर से निकाल दिया। तुमने उसका सिर क्यों न काट लिया? अगर तुमको उसके पातिव्रत पर संदेह था, तो तुमने उसे मार क्यों नहीं डाला? और यदि इतना साहस नहीं था, तो स्वयं क्यों न प्राण त्याग दिया? विष क्यों न खा लिया? अगर तुमने उसके जीवन का अंत कर दिया होता, तो उसकी यह दुर्दशा न हुई होती, मेरे कुल में यह कलंक न लगता। तुम भी कहोगे कि मैं पुरुष हूं? तुम्हारी इस कायरता पर, निर्लज्जता पर धिक्कार है। जो पुरुष इतना नीच है कि अपनी स्त्री को दूसरों से प्रेम करते देखकर उसका रुधिर खौल नहीं उठता, वह पशुओं से भी गया-बीता है।

गजाधर को अब मालूम हुआ कि सुमन को घर से निकालने की बात कहकर वह ब्रह्मफांस में फंस गए। वह मन में पछताने लगे कि उदारता की धुन में मैं इतना असावधान क्यों हो गया? तिरस्कार की मात्रा भी उनकी आशा से अधिक हो गई। वह न समझे कि तिरस्कार यह रूप धारण करेगा और उससे मेरे हृदय पर इतनी चोट लगेगी। अनुतप्त हृदय वह तिस्कार चाहता है, जिसमें सहानुभूति और सहृदयता हो, वह नहीं जो अपमान सूचक और क्रूरतापूर्ण हो। पका फोड़ा नश्तर का घाव चाहता है, पत्थर का आघात नहीं। गजाधर अपने पश्चाताप पर पछताए। उनका मन अपना पूर्वपक्ष समर्थन करने के लिए अधीर होने लगा।

कृष्णचन्द्र ने गरजकर कहा– क्यों, तुमने उसे मार क्यों नहीं डाला?

गजाधर ने गंभीर स्वर में उत्तर दिया– मेरा हृदय इतना कठोर नहीं था?

कृष्णचन्द्र– तो घर से क्यों निकाला?

गजाधर– केवल इसलिए कि उस समय मुझे उससे गला छुड़ाने का और कोई उपाय न था।

कृष्णचन्द्र ने मुंह चढ़ाकर कहा– क्यों, जहर खा सकते थे?

गजाधर इस चोट से बिलबिलाकर बोले– व्यर्थ में जान देता?

कृष्णचन्द्र– व्यर्थ जान देना, व्यर्थ जीने से अच्छा है।

गजाधर– आप मेरे जीने को व्यर्थ नहीं कह सकते। आपसे पंडित उमानाथ ने न कहा होगा, पर मैंने इसी याचना-वृत्ति से उन्हें शान्ता के विवाह के लिए पंद्रह सौ रुपए दिए हैं और इस समय भी उन्हीं के पास यह एक हजार रुपए लेकर जा रहा था, जिससे वह कहीं उसका विवाह कर दें।

यह कहते-कहते गजाधर चुप हो गए। उन्हें अनुभव हुआ कि इस बात का उल्लेख करके मैंने अपने ओछेपन का परिचय दिया। उन्होंने संकोच से सिर झुका लिया।

कृष्णचन्द्र ने संदिग्ध स्वर से कहा– उन्होंने इस विषय में मुझसे कुछ नहीं कहा।

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