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उपन्यास >> सेवासदन (उपन्यास)

सेवासदन (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :535
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8632

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यह उपन्यास घनघोर दानवता के बीच कहीं मानवता का अनुसंधान करता है


सुभद्रा– तो यह कौन मुश्किल बात है, सबेरे चादर ओढ़कर लेट रहिएगा, मैं कह दूंगी आज तबीयत अच्छी नहीं है।

शर्माजी हंसी रोक न सके। इस व्यंग्य में कितनी निर्दयता, कितनी विरक्ति थी। बोले– अच्छा, मान लिया कि आदमी कल लौट गया, परसों तो डिगवी साहब जानेवाले ही हैं। कल कोई-न-कोई फिक्र करनी ही पड़ेगी।

सुभद्रा– तो वही फिक्र आज ही क्यों नही कर डालते?

शर्माजी– भाई चिढ़ाओ मत। अगर मेरी बुद्धि काम करती तो तुम्हारी शरण क्यों आता? चुपचाप काम न कर डालता? जब कुछ नहीं बन पड़ा है, तब तुम्हारे पास आया हूं। बताओं, क्या करूं?

सुभद्रा– मैं क्या बताऊं? आपने तो वकालत पढ़ी है, मैं तो मिडिल तक भी नहीं पढ़ी, मेरी बुद्धि यहां क्या काम देगी? इतना जानती हूं कि घोड़े को द्वार पर हिनहिनाते सुनकर बैरियों की छाती धड़क जाएगी। जिस वक्त आप सदन को उस पर बैठे देखेंगे, तो आंखें तृप्त हो जाएंगी।

शर्माजी– वही तो पूछता हूं कि यह अभिलाषाएं कैसे पूरी हों?

सुभद्रा– ईश्वर पर भरोसा रखिए, वह कोई-न-कोई जुगत निकालेगा ही।

शर्माजी– तुम तो ताने देने लगीं।

सुभद्रा– इसके सिवा मेरे पास और है ही क्या? अगर आप समझते हों कि मेरे पास रुपए होंगे, तो यह आपकी भूल है। मुझे हेर-फेर करना नहीं आता, संदूक की चाबी लीजिए, सौ-सवा सौ रुपए पड़े हुए हैं, निकाल ले जाइए। बाकी के लिए और कोई फिक्र कीजिए। आपके कितने ही मित्र हैं, क्या दो-चार सौ रुपए का प्रबन्ध नहीं कर देंगे।

यद्यपि पद्यसिंह यही उत्तर पाने की आशा रखते थे, पर इसे कानों से सुनकर वह अधीर हो गए। गांठ जरा भी हल्की न पड़ी। चुपचाप आकाश की ओर ताकने लगे, जैसे कोई अथाह जल में बहा जाता हो।

सुभद्रा संदूक की चाबी देने को तैयार तो थी, लेकिन संदूक में सौ रुपए की जगह पूरे पाँच सौ रुपए बटुए में रखे हुए थे। यह सुभद्रा की दो साल की कमाई थी। इन रुपयों को देख-देख सुभद्रा फूली न समाती थी। कभी सोचती, अबकी घर चलूंगी, तो भाभी के लिए अच्छा-सा कंगन लेती चलूंगी और गांव की सब कन्याओं के लिए एक-एक साड़ी। कभी सोचती, यहीं कोई काम पड़ जाए और शर्माजी रुपये के लिए परेशान हों, तो मैं चट निकालकर दे दूंगी। वह कैसे प्रसन्न होंगे। चकित हो जाएंगे। साधारणतः युवतियों के हृदय में ऐसे उदार भाव नहीं उठा करते। वह रुपए जमा करती हैं, अपने गहनों के लिए, सुभद्रा बड़ी धनी घर की बेटी थी, गहनों से मन भरा हुआ था।

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