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सेवासदन (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :535
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8632

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यह उपन्यास घनघोर दानवता के बीच कहीं मानवता का अनुसंधान करता है


कई महीने बीत गए। वर्षाकाल आ पहुंचा। मेलों-ठेलों की धूम मच गई। सदन बांकी सज-धज बनाए मनचले घोड़े पर चारों ओर घूमा करता। उसके हृदय में प्रेम-लालसा की एक आग-सी जलती रहती थी। अब वह इतना निःशंक हो गया था कि दालमंडी में घोड़े से उतरकर तंबोलियों की दुकानों पर पान खाने बैठ जाता। वह समझते, यह कोई बिगड़ा हुआ रईसजादा है। उससे रूप-हाट की नई-नई घटनाओं का वर्णन करते। गाने में कौन-सी अच्छी है और सुंदरता में अद्वितीय है, इसकी चर्चा छिड़ जाती। इस बाजार में नित्य वह चर्चा रहती। सदन इन बातों को चाव से सुनता। अब तक वह कुछ रसज्ञ हो गया था। पहले जो गजलें निरर्थक मालूम होती थीं, उन्हें सुनकर अब उसके हृदय का एक-एक तार सितार की भांति गूंजने लगता था। संगीत के मधुर स्वर उसे उन्मत्त कर देते, बड़ी कठिनता से वह अपने को कोठों पर चढ़ने से रोक पाता।

पद्मसिंह सदन को फैशनेबुल तो बनाना चाहते थे, लेकिन उसका बांकपन उनकी आंखों में खटकता था। वह नित्य वायुसेवन करने जाते, पर सदन उन्हें पार्क या मैदान में कभी न मिलता। वह सोचते कि यह रोज कहां घूमने जाता है। कहीं उसे दालमंडी की हवा तो नहीं लगी?

उन्होंने दो-तीन बार सदन को दालमंडी में खड़े देखा। उन्हें देखते ही सदन चट एक दुकान पर बैठ जाता और कुछ-न-कुछ खरीदने लगता। शर्माजी उसे देखते और सिर नीचा किए हुए निकल जाते। बहुत चाहते कि सदन को इधर आने से रोकें, किंतु लज्जावश कुछ न कह सकते।

एक दिन शर्माजी सैर करने जा रहे थे कि रास्ते में दो सज्जनों से भेंट हो गई। यह दोनों म्युनिसिपैलिटी के मेंबर थे। एक का नाम था अबुलवफा, दूसरे का नाम अब्दुल्लतीफ। ये दोनों फिटन पर सैर करने जा रहे थे। शर्माजी को देखते ही रुक गए।

अबुलवफा बोले– आइए जनाब! आप ही का जिक्र हो रहा था। आइए, कुछ दूर साथ ही चलिए।

शर्माजी ने उत्तर दिया– मैं इस समय घूमा करता हूं, क्षमा कीजिए।

अबुलवफा– अजी, आपसे एक खास बात कहनी है। हम तो आपके दौलतखाने पर हाजिर होने वाले थे।

इस आग्रह से विवश होकर शर्माजी फिटन पर बैठे।

अबुलवफा– वह खबर सुनाएं कि रूह फड़क उठे।

शर्माजी– फरमाइए तो।

अबुलवफा– आपकी महाराजिन सुमन ‘बाई’ हो गई।

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