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उपन्यास >> सेवासदन (उपन्यास)

सेवासदन (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :535
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8632

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यह उपन्यास घनघोर दानवता के बीच कहीं मानवता का अनुसंधान करता है


अबुलवफा– और हम कह चुके कि जरूर ले चलेंगे। आपको हमारी खातिर से इतनी तकलीफ करनी पड़ेगी।

अब्दुललतीफ ने घोड़े को एक चाबुक लगाया। वह हवा हो गया। शर्माजी ने क्रोध से कहा– आप मेरा अपमान करना चाहते हैं?

अबुलवफा– जनाब, आखिर वजह भी तो कुछ होनी चाहिए। जरा देर में पहुंच जाते हैं। यह लीजिए, सड़क घूम गई है।

शर्माजी समझ गए कि यह लोग इस समय मेरी आरजू-मिन्नत पर ध्यान न देंगे। सुमन के पास जाने के बदले वह कुएं में गिरना अच्छा समझते थे। अतएव उन्होंने अपने कर्त्तव्य का निश्चय कर लिया। वह उठे और वेग से चलती हुई गाड़ी पर से कूद पड़े। यद्यपि उन्होंने अपने को बहुत संभाला, पर रुक न सके। पैर लड़खड़ा गए और वह उल्टे हुए पचास कदम तक चले गए। कई बार गिरते-गिरते बचे, पर अंत में ठोकर खाकर गिर ही पड़े। हाथ की कुहनियों में कड़ी चोट लगी, हांफते-हांफते बेदम हो गए। शरीर पसीने में डूब गया, सिर चक्कर खाने लगा और आंखें तिलमिला गईं। जमीन पर बैठ गए। अब्दुललतीफ ने घोड़ा रोक दिया, दौड़े हुए दोनों आदमी उनके पास आए और रुमाल निकालकर झलने लगे।

कोई पंद्रह मिनट में शर्माजी सचेत हुए। दोनों महाशय पछताने लगे, बहुत लज्जित हुए और शर्माजी से क्षमा मांगने लगे। बहुत आग्रह किया कि गाड़ी पर बिठाकर आपको घर पहुंचा दें। किंतु शर्माजी राजी न हुए। उन्हें वहीं छोड़कर वह खड़े हो गए और लंगड़ाते हुए घर की तरफ चले। लेकिन अब सावधान होने पर उन्हें विस्मय होता था कि मैं फिटन से कूद क्यों पड़ा? यदि मैं एक बार झिड़ककर कह देता कि गाड़ी रोको, तो किसकी मजाल थी कि न रोकता और अगर वह इतने पर भी न मानते, तो मैं उनके हाथ से रास छीन सकता था। पर खैर, जो हुआ, वह हुआ। कहीं वह दोनों मुझे बातों में बहलाकर सुमन के दरवाजे पर जा पहुंचते, तो मुश्किल होती। सुमन से मेरी आंखें कैसे मिलतीं? कदाचित् मैं गाड़ी से उतरते ही भागता, पागलों की भाँति बाजार में दौड़ता। गऊ का वध होते तो चाहे देख सकूं, पर सुमन को इस दशा में नहीं देख सकता। बड़े-से-बड़ा भय सदैव कल्पित हुआ करता है।

इस समय उनके मन में यह प्रश्न उठ रहा था कि इस दुर्घटना का उत्तरदायी कौन है? उनकी विवेचना-शक्ति पिछली बातों की आलोचना कर रही थी। यदि मैंने उसे घर से निकाल न दिया होता, तो इस भांति उसका पतन न होता। मेरे यहां से निकलकर उसे और कोई ठिकाना न रहा और क्रोध और कुछ नैराश्य की अवस्था में यह भीषण अभिनय करने पर बाध्य हुई। इसका सारा अपराध मेरे सिर है।

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