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सेवासदन (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :535
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8632

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यह उपन्यास घनघोर दानवता के बीच कहीं मानवता का अनुसंधान करता है


लेकिन सदन उसके भावों से अनभिज्ञ होने के कारण उसकी प्रेम-शिथिलता को अपनी धनहीनता पर अवलंबित समझता था। उसका निष्कपट हृदय प्रगाढ़ प्रेम में मग्न हो गया था। सुमन उसके जीवन का आधार बन गई थी। मगर विचित्रता यह थी कि प्रेम-लालसा के इतने प्रबल होते हुए भी वह अपनी कुवासनाओं को दबाता था। उसका अक्खड़पन लुप्त हो गया था। वह वही करना चाहता था, जो सुमन को पसंद हो। वह कामातुरता जो कलुषित प्रेम में व्याप्त होती है, सच्चे अनुराग के अधीन होकर सहृदयता में परिवर्तित हो गई थी, पर सुमन की अनिच्छा दिनों-दिन बढ़ती देखकर उसने अपने मन में यह निर्धारित किया कि पवित्र प्रेम की कदर यहां नहीं हो सकती। यहां के देवता उपासना से नहीं, भेंट से प्रसन्न होते हैं। लेकिन भेंट के लिए रुपए कहां से आएं? मांगे किससे? निदान उसने पिता को एक पत्र लिखा कि मेरे भोजन का अच्छा प्रबंध नहीं है, लज्जावश चाचा साहब से कुछ कह नहीं सकता, मुझे कुछ रुपए भेज दीजिए।

घर पर यह पत्र पहुंचा, तो भामा ने पति को ताने देने शुरू किए, इसी भाई का तुम्हें इतना भरोसा था, घमंड से धरती पर पांव नहीं रखते थे। अब घमंड टूटा कि नहीं? वह भी चाचा पर बहुत फूला हुआ था, अब आंखें खुली होंगी। इस काल में नेकी किसी को याद नहीं रहती, अपने दिन भूल जाते हैं। उसके लिए मैंने कौन-कौन-सा यत्न नहीं किया, छाती से दूध-भर नहीं पिलाया। उसी का यह बदला मिल रहा है। उस बेचारे का कुछ दोष नहीं, उसे मैं जानती हूं, यह सारी करतूत उन्हीं महारानी की है। अब की भेंट हुई, तो वह खरी-खरी सुनाऊं कि याद करे।

मदनसिंह को संदेह हुआ कि सदन ने यह पाखंड रचा है। भाई पर उन्हें अखंड विश्वास था, लेकिन जब भामा ने रुपए भेजने पर जोर दिया, तो उन्हें भेजने पड़े। सदन रोज डाकघर जाता, डाकिए से बार-बार पूछता। आखिर चौथे दिन पच्चीस रुपए का मनीआर्डर आया। डाकिया उसे पहचानता था, रुपए मिलने में कोई कठिनाई न हुई। सदन हर्ष से फूला न समाया। संध्या को बाजार से एक उत्तम रेशमी साड़ी मोल ली। लेकिन यह शंका हो रही थी कि कहीं सुमन उसे नापसंद न करे। वह कुंवर बन चुका था, इसीलिए ऐसी तुच्छ भेंट देते हुए झेंपता था। साड़ी जेब में रख, बड़ी देर तक घोड़े पर इधर-उधर टहलता रहा।

खाली हाथ वह सुमन के यहां नित्य बेधड़क चला जाया करता था, पर आज यह भेंट लेकर जाने में संकोच होता था। जब खूब अंधेरा हो गया, तो मन को दृढ़ करके सुमन के कोठे पर चढ़ गया और साड़ी चुपके से निकालकर श्रंगारदान पर रख दी। सुमन उसके इस विलंब से चिंतित हो रही थी। उसे देखते ही फूल के समान खिल गई। बोली, यह क्या लाए? सदन ने झेंपते हुए कहा, कुछ नहीं, आज एक साड़ी नजर आ गई, मुझे अच्छी मालूम हुई, ले ली, यह तुम्हारी भेंट है। सुमन ने मुस्कराकर कहा, आज इतनी देर तक राह दिखाई, क्या यह उसी का प्रायश्चित है? यह कहकर उसने साड़ी को देखा। सदन की वास्तविक अवस्था के विचार से वह बहुमूल्य कही जा सकती थी।

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