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सेवासदन (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :535
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8632

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यह उपन्यास घनघोर दानवता के बीच कहीं मानवता का अनुसंधान करता है


सदन– कुछ नहीं, खाली बक्स है।

सुमन– नहीं-नहीं, ठहरिए, मैं देख लूं।

यह कहकर उसने सदन का हाथ पकड़ लिया और संदूकची को खोलकर देखा। इस कंगन को उसने सुभद्रा के हाथ में देखा था। उसकी बनावट बहुत अच्छी थी। पहचान गई, हृदय पर बोझ-सा आ पड़ा। उदार होकर बोली– मैंने आपसे कह दिया था कि मैं इन चीजों की भूखी नहीं हूं। आप व्यर्थ मुझे लज्जित करते हैं।

सदन ने लापरवाही से कहा, मानो वह कोई राजा है– गरीब के पानफूल स्वीकार करना चाहिए।

सुमन– मेरे लिए तो सबसे अमूल्य चीज आपकी कृपा है। वही मेरे ऊपर बनी रहे। इस कंगन को आप मेरी तरफ से अपनी नई रानी साहिबा को दे दीजिएगा। मेरे हृदय में आपके प्रति पवित्र प्रेम है। वह इन इच्छाओं से रहित है। आपके व्यवहार से ऐसा मालूम होता है कि अभी आप मुझे बाजारू औरत ही समझे हुए हैं। आप ही एक ऐसे पुरुष हैं, जिस पर मैंने अपना प्रेम, अपना सर्वस्व अर्पण कर दिया है, लेकिन आपने अभी तक उसका कुछ मूल्य न समझा!

सदन की आंखें भर आईं। उसने मन में सोचा, यथार्थ में मेरा ही दोष है। मैं उसके प्रेम जैसी अमूल्य वस्तु को इन तुच्छ उपहारों का इच्छुक समझता हूं। मैं हथेली पर सरसों जमाने की चेष्टा में इस रमणी के साथ ऐसा अनर्थ करता हूं। आज इस नगर में ऐसा कौन है, जो उसके एक प्रेम-कटाक्ष पर अपना सर्वस्व न लुटा दे? बड़े-बड़े ऐश्वर्यवान् मनुष्य आते हैं और वह किसी की ओर आंख उठाकर भी नहीं देखती, पर मैं ऐसा भावशून्य नीच हूं कि इस प्रेम-रत्न को कौड़ियों से मोल लेना चाहता हूं। इस ग्लानिपूर्ण भावों से वह रो पड़ा। सुमन समझ गई कि मेरे वह वाक्य अखर गए। करुण स्वर में बोली–

आप मुझसे नाराज हो गए क्या?

सदन ने आंसू पीकर कहा– हां, नाराज तो हूं।

सुमन– क्यों नाराज हैं?

सदन– इसीलिए कि तुम मुझे बाणों से छेदती हो। तुम समझती हो कि मैं ऐसी तुच्छ वस्तुओं से प्रेम मोल लेना चाहता हूं।

सुमन– तो यह चीजें क्यों लाते हैं?

सदन– मेरी इच्छा!

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