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सोज़े वतन (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :96
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8640

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सोज़े वतन यानी देश का दर्द…


बच्चा मसऊद देखते-देखते एक साल का नौजवान शहजादा हो गया। देखकर देखनेवाले के दिल को एक नशा–सा होता था। एक रोज़ शाम का वक़्त था, शाह साहब अकेले सैर करने गये और जब लौटे तो उनके सर पर एक जड़ाऊ ताज शोभा दे रहा था। रिन्दा उनका यह हुलिया देखकर सहम गयी और मुँह से कुछ बोल न सकी। तब उन्होंने मसऊद को गले से लगाया, उसी वक़्त उसे नहलाया-धुलाया और एक चट्टान के तख़्त पर बैठाकर दर्द-भरे लहजे में बोले, मसऊद, मैं आज तुमसे रुखसत होता हूँ तुम्हारी अमानत तुम्हें सौंपता हूँ। यह उसी मुल्के जन्नतनिशाँ का ताज है। कोई वह ज़माना था, कि यह ताज तुम्हारे बदनसीब बाप के सर पर ज़ेब देता था, अब वह तुम्हें मुबारक हो। रिन्दा! प्यारी बीबी! तेरा बदक़िस्मत शौहर किसी ज़माने में इस मुल्क़ का बादशाह था और तू उसकी मलिका है। मैंने यह राज तुम से अब तक छिपाया था मगर हमारे अलग होने का वक़्त बहुत पास है। अब छिपाकर क्या करूँ। मसऊद, तुम अभी बच्चे हो, मगर दिलेर और समझदार हो। मुझे यकीन है कि तुम अपने बूढ़े बाप की आख़िरी वसीयत पर ध्यान दोगे और उस पर अमल करने की कोशिश करोगे। यह मुल्क़ तुम्हारा है, यह ताज तुम्हारा है और यह रिआया तुम्हारी है। तुम इन्हें अपने कब्जे में लाने की मरते दम तक कोशिश करते रहना और अगर तुम्हारी कोशिशें नाकाम हो जायें और तुम्हें भी यही बेसरोसामानी की मौत नसीब हो तो यही वसीयत तुम अपने बेटे को कर देना और यह ताज जो उसकी अमानत होगी उसके सुपुर्द करना। मुझे तुमसे और कुछ नहीं कहना है, खुदा तुम दोनों को खुशोखुर्रम रक्खे और तुम्हें मुराद को पहुँचाये।

यह कहते-कहते शाह साहब की आँखें बन्द हो गयीं। रिन्दा दौड़कर उनके पैरों से लिपट गयी और मसऊद रोने लगा। दूसरे दिन सुबह को गाँव के लोग जमा हुए और एक पहाड़ी गुफ़ा की गोद में लाश रख दी।

शाह किशवरकुशा ने आधी सादी तक खूब इन्साफ़ के साथ राज किया मगर किशवरकुशा दोयम ने सिंहासन पर आते ही अपने अक़्लमन्द बाप के मन्त्रियों को एक सिरे से बर्खास्त कर दिया और अपनी मर्जी के मुआफ़िक नये-नये वजीर और सलाहकार नियुक्त किये। सल्तनत का काम रोज़-ब-रोज़ बिगड़ने लगा। सरदारों ने बेइन्साफी पर कमर बाँधी और हुक्काम रिआया पर ज़ोर-जबर्दस्ती करने लगे। यहां तक कि ख़ानदाने मुरादिया के एक पुराने नमकख़ोर ने मौक़ा अच्छा देखकर बग़ावत का झंडा बुलन्द कर दिया। आसपास से लोग उसके झंडे के नीचे जमा होने लगे और कुछ ही हफ्तों में एक बड़ी फ़ौज क़ायम हो गयी और मसऊद भी नमकख़ोर सरदार की फ़ौज में आकर मामूली सिपाहियों का काम करने लगा। मसऊद का अभी यौवन का आरम्भ था। दिल में मर्दाना जोश और बाजुओं में शेरों की कूवत मौजूद थी। ऐसा लम्बा-तड़ंगा सुन्दर नौजवान बहुत कम किसी ने देखा होगा। शेरों के शिकार का उसे इश्क़ था। दूर-दूर तक के जंगल दरिन्दों से खाली हो गये। सबेरे से शाम तक उसे सैरो-शिकार के सिवा और कोई धंधा न था। लबोलहजा ऐसा दिलकश पाया था कि जिस वक़्त मस्ती में आकर कोई क़ौमी गीत छेड़ देता तो राह चलते मुसाफ़िरों और पहाड़ी औरतों का ठट लग जाता था। कितने ही भोले-भाले दिलों पर उसकी मोहिनी सूरत नक्श थी, कितनी ही आँखें उसे देखने को तरसतीं और कितनी ही जानें उसकी मुहब्बत की आग में घुलती थीं। मगर मसऊद पर अभी तक किसी का जादू न चला था। हाँ अगर उसे मुहब्बत थी तो अपनी आबदार शमशीर से जो उसने बाप से बिरसे में पायी थी। इस तेग़ को वह जान से ज़्यादा प्यार करता। बेचारा खुद नंगे बदन रहता मगर उसके लिए तरह-तरह के मियान बनवाये थे। उसे एक दम के लिए अपने पहलू से अलग न करता। सच है दिलेर सिपाही की तलवार उसकी निगाहों में दुनिया की तमाम चीज़ों से ज़्यादा प्यारी होती है। ख़ासकर वह आबदार खंजर जिसका जौहर बहुत से मौकों पर परखा जा चुका हो। इसी तेग़ से मसऊद ने कितने ही जंगली दरिन्दों को मारा था, कितने ही लुटेरों और डाकुओं को मौत का मज़ा चखाया था और उसे पूरा यक़ीन था कि यही तलवार किसी दिन किशवरकुशा दोयम के सर पर चमकेगी और उसकी शहरग के खून से अपनी जबान तर करेगी।

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