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वरदान (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :259
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8670

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‘वरदान’ दो प्रेमियों की कथा है। ऐसे दो प्रेमी जो बचपन में साथ-साथ खेले...


इस उत्साहवर्द्वक दृश्य को देखकर लोगों के हृदय जातीयता के मद में मतवाले हो गए! पचास सहस्र स्वर से ध्वनि आई– बालाजी की जय।’ मेघ गर्जा और चतुर्दिक से पुष्पवृष्टि होने लगी। फिर उसी प्रकार दूसरी बार मेघ की गर्जना हुई– ‘मुंशी शालिग्राम की जय’ और सहस्रों मनुष्य स्वदेश– प्रेम के मद से मतवाले होकर दौड़े और सुवामा के चरणों की रज माथे पर मलने लगे। इन ध्वनियों से सुवामा ऐसी प्रमुदित हो रही थी जैसे महुअर के सुनने से नागिन मतवाली हो जाती है। आज उसने अपना खोया हुआ लाल पाया है। अमूल्य रत्न पाने से वह रानी हो गयी है। इस रत्न के कारण आज उसके चरणों की रज लोगों के नेत्रों का अंजन और माथे का चन्दन बन रही है।

अपूर्व दृश्य था। बारम्बार जय-जयकार की ध्वनि उठती थी और स्वर्ग के निवासियों को भारत की जागृति का शुभ-संवाद सुनाती थी। माता अपने पुत्र को कलेजे से लगाये हुए है। बहुत दिन के अनन्तर उसने अपना खोया हुआ लाल पाया है, वह लाल जो उसकी जन्म-भर की कमाई था। फूल चारों ओर से निछावर हो रहे हैं। स्वर्ण और रत्नों की वर्षा हो रही है। माता और पुत्र कमर तक पुष्पों के समुद्र में डूबे हुए हैं। ऐसा प्रभावशाली दृश्य किसके नेत्रों ने देखा होगा।

सुवामा बालाजी का हाथ पकड़े हुए घर की ओर चली। द्वार पर पहुँचते ही स्त्रियाँ मंगल-गीत गाने लगीं और माधवी स्वर्ण– रचित थाल में धूप, दीप और पुष्पों से आरती करने लगी। विरजन ने फूलों की माला– जिसे माधवी ने अपने रक्त से रंजित किया था– उनके गले में डाल दी। बालाजी ने सजल नेत्रों से विरजन की ओर देखकर प्रणाम किया।

माधवी को बालाजी के दर्शन की कितनी अभिलाषा थी। किन्तु इस समय उसके नेत्र पृथ्वी की ओर झुके हुए हैं। वह बालाजी की ओर नहीं देख सकती। उसे भय है कि मेरे नेत्र हृदय के भेद को खोल देंगे। उनमें प्रेम रस भरा हुआ है। अब तक उसकी सबसे अभिलाषा यह थी कि बालाजी का दर्शन पाऊँ। आज प्रथम बार माधवी के हृदय में नयी अभिलाषाएं उत्पन्न हुई, आज अभिलाषाओं ने सिर उठाया है, मगर पूर्ण होने के लिए नहीं, आज अभिलाषा-वाटिका में एक नवीन कली लगी है, मगर खिलने के लिए नहीं, वरन मुरझाने के लिए और मुरझाकर मिट्टी में मिल जाने के लिए। माधवी को कौन समझाए कि तू इन अभिलाषाओं को हृदय में न उत्पन्न होने दे। ये अभिलाषाएं तुझे बहुत रुलाएंगी। तेरा प्रेम काल्पनिक है। तू उसके स्वाद से परिचित है। क्या अब वास्तविक प्रेम का स्वाद लेना चाहती है?

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