सदाबहार >> वरदान (उपन्यास) वरदान (उपन्यास)प्रेमचन्द
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‘वरदान’ दो प्रेमियों की कथा है। ऐसे दो प्रेमी जो बचपन में साथ-साथ खेले...
(८) सखियाँ
डिप्टी श्यामाचरण का भवन आज सुन्दरियों के जमघट से इन्द्र का अखाड़ा बना हुआ था। सेवती की चार सहेलियाँ– रुक्मिणी, सीता, रमदेई और चन्द्रकुंवर– सोलहों सिंगार किये इठला फिरती थीं। डिप्टी साहब की बहिन जानकी कुंवर भी अपनी दो लड़की के साथ इटावे से आ गयी थीं। इन दोनों का नाम कमला और उमादेवी था। कमला का विवाह हो चुका था। उमादेवी अभी कुंवारी ही थी। दोनों सूर्य और चन्द्र थी। मंडप के तले डौमनियां और गवनिहारिनें सोहर और सोहाग, अलाप रही थीं। गुलबिया नाइन और जमनी कहारिन दोनों चटकीली साड़ियाँ पहिने, मांग सिंदूर से भरवाये, गिलट के कड़े पहिने छम-छम करती फिरती थीं। गुलबिया चपला नवयौवन थी। जमुना की अवस्था ढल चुकी थी। सेवती का क्या पूछना? आज उसकी अनोखी छटा थी। रसीली आंखें आमोदाधिक्य से मतवाली हो रही थीं और गुलाबी साड़ी की झलक से चम्पई रंग गुलाबी जान पड़ता था। धानी मखमल की कुरती उस पर खूब खिलती थी। अभी स्नान करके आयी थी, इसलिए नागिन-सी लट कंधों पर लहरा रही थी। छेड़छाड़ और चुहल से इतना अवकाश न मिलता था कि बाल गुंथवा ले। महराजिन की बेटी माधवी छींट का लँहगा पहने, आँखों में काजल लगाये, भीतर– बाहर एक किये हुए थी।
रुक्मिणी ने सेवती से कहा– सित्तो! तुम्हारी भावज कहाँ है? दिखायी नहीं देती। क्या हम लोगों से भी पर्दा है?
रामदेई– (मुस्कुराकर)परदा क्यों नहीं है? हमारी नजर न लग जायगी?
सेवती– कमरे में पड़ी सो रही होंगी। देखो अभी खींचे लाती हूं।
यह कहकर वह चन्द्रा के कमरे में पहुंची। वह एक साधारण साड़ी पहने चारपाई पर पड़ी द्वार की ओर टकटकी लगाये हुए थी। इसे देखते ही उठ बैठी। सेवती ने कहा– यहाँ क्या पड़ी हो, अकेले तुम्हारा जी नहीं घबराता?
चन्द्रा– उंह, कौन जाए, अभी कपड़े नहीं बदले।
सेवती– बदलती क्यों नहीं? सखियाँ तुम्हारी बाट देख रही हैं।
चन्द्रा– अभी मैं न बदलूंगी।
सेवती– यही हठ तुम्हारी अच्छी नहीं लगती। सब अपने मन में क्या कहती होंगी?
चन्द्रा– तुमने तो चिटठी पढ़ी थी, आज ही आने को लिखा था न?
सेवती– अच्छा, तो यह उनकी प्रतीक्षा हो रही है, यह कहिए! तभी योग साधा है।
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