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वरदान (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :259
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8670

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‘वरदान’ दो प्रेमियों की कथा है। ऐसे दो प्रेमी जो बचपन में साथ-साथ खेले...


कमला– (बिगड़कर) झूठों के मुख में कीड़े पड़ते हैं। तुमने मेरी वस्तुएं नहीं छुई तो किसको साहस है जो मेरे कमरे में जाकर मेरे कनकौए और चर्खियां सब तोड़-फोड़ डाले? क्या इतना भी नहीं देखा जाता।

प्रेमवती–  ईश्वर साक्षी है। मैंने तुम्हारे कमरे में पांव भी नहीं रखा। चलो, देखूं कौन-कौन चीज़ें टूटी हैं।

यह कहकर प्रेमवती तो इस कमरे की ओर चली और कमला क्रोध से भरा आंगन में खड़ा रहा कि इतने में माधवी विरजन के कमरे से निकली और उसके हाथ में एक चिट्ठी देकर चली गई। लिखा हुआ था–

‘अपराध मैंने किया है। अपराधिन मैं हूं। जो दण्ड चाहे दीजिए’।

यह पत्र देखते ही कमला भीगी बिल्ली बन गया और दबे पांव बैठक की ओर चला। प्रेमवती पर्दे की आड़ से सिसकते हुए नौकरों को डांट रही थी, कमलाचरण ने उसे मना किया और उसी क्षण कुछ और कनकौए जो बचे हुए थे, स्वयं फाड़ डाले, चर्खियां टुकड़े-टुकड़े कर डालीं और डोर में दियासलाई लगा दी। माता के ध्यान ही में नहीं आता था कि क्या बात है? कहां तो अभी-अभी इन्हीं वस्तुओं के लिए संसार सिर पर उठा लिया था और कहां आप ही उसका शत्रु हो गया। समझी, शायद क्रोध से ऐसा कर रहा हो। मनाने लगीं, पर कमला की आकृति से क्रोध तनिक भी प्रकट न होता था। स्थिरता से बोला– क्रोध में नहीं हूं। आज से दृढ़ प्रतिज्ञा करता हूं कि पतंग कभी न उड़ाऊँगा। मेरी मूर्खता थी, इन वस्तुओं के लिए आपसे झगड़ बैठा।

जब कमलाचरण कमरे में अकेला रह गया तो सोचने लगा– निस्सन्देह मेरा पतंग उड़ाना उन्हें नापसन्द है, इससे हार्दिक घृणा है; नहीं तो मुझ पर यह अत्याचार कदापि न करतीं। यदि एक बार उनसे भेंट हो जाती तो पूछता कि तुम्हारी क्या इच्छा है; पर कैसे मुँह दिखाऊँ। एक तो महामूर्ख, तिस पर कई बार अपनी मूर्खता का परिचय दे चुका। सेंधवाली घटना की सूचना उन्हें अवश्य मिली होगी। उन्हें मुख दिखाने के योग्य नहीं रहा। अब तो यही उपाय है कि न तो उनका मुख देखूँ न अपना दिखाऊँ, या किसी प्रकार कुछ विद्या सीखूँ। हाय! इस सुन्दरी ने कैसा स्वरूप पाया है! स्त्री नहीं अप्सरा जान पड़ती है। क्या अभी वह दिन भी होगा जब कि वह मुझसे प्रेम करेगी? क्या लाल-लाल रसीले अधर हैं! पर है कठोर हृदय। दया तो उसे छू नहीं गयी। कहती है जो दण्ड चाहे दीजिए। क्या दण्ड दूँ। यदि पा जाऊँ हृदय से लगा लूं। अच्छा, तो अब आज से पढ़ना चाहिए। यह सोचते-सोचते उठा और दरबा खोलकर कबूतरों को उड़ाने लगा। सैकड़ों जोड़े थे और एक-से-एक बढ़-चढ़कर। आकाश में तारे बन जायें, उड़ें तो दिन-भर उतरने का नाम न लें। नगर के कबूतरबाज एक-एक जोड़ पर गुलामी करने को तैयार थे। परन्तु क्षण-मात्र में सब-के-सब उड़ा दिये। जब दरबार खाली हो गया, तो कहारों को आज्ञा दी कि इसे उठा ले जाओ और आग में जला दो। छत्ता भी गिरा दो, नहीं तो सब कबूतर आकर उसी पर बैठेंगें। कबूतरों का काम समाप्त करके बटेरों और बुलबुलों की ओर चले और उनको भी कारागार से मुक्त कर दिया।

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