सदाबहार >> वरदान (उपन्यास) वरदान (उपन्यास)प्रेमचन्द
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‘वरदान’ दो प्रेमियों की कथा है। ऐसे दो प्रेमी जो बचपन में साथ-साथ खेले...
परन्तु डिप्टी साहब की बुद्वि स्थिर न थी; समझे, यह मुझे रोककर विलम्ब करना चाहता है। विनीत भाव से बोले– बच्चा? ईश्वर के लिए मुझे छोड़ दो, मैं सन्दूक से एक औषधि ले आऊँ। मैं क्या जानता था कि तुम इस नीयत से छात्रालय में जा रहे हो।
कमला– ईश्वर-साक्षी से कहता हूँ, मैं बिलकुल अच्छा हूँ। मैं ऐसा लज्जावान होता, तो इतना मूर्ख क्यों बना रहता? आप व्यर्थ ही डॉक्टर साहब को बुला रहे हैं।
मुंशीजी– (कुछ-कुछ विश्वास करके) तो किवाड़ बन्द कर क्या करते थे?
कमला– भीतर से एक पत्र आया था, उत्तर लिख रहा था।
मुंशीजी– और यह कबूतर वगैरह क्यों उड़ा दिये?
कमला– इसीलिए कि निश्चिंततापूर्वक पढूँ। इन्हीं बखेड़ों में समय नष्ट होता था। आज मैंने इनका अन्त कर दिया। अब आप देखेंगे कि मैं पढ़ने में कैसा जी लगाता हूँ।
अब जाके डिप्टी साहब की बुद्वि ठिकाने आई। भीतर जाकर प्रेमवती से समाचार पूछा तो उसने सारी रामायण कह सुनायी। उन्होंने जब सुना कि विरजन ने क्रोध में आकर कमला के कनकौए फाड़ डाले और चर्खियां तोड़ डालीं तो हंस पड़े और कमला के विनोद के सर्वनाश का भेद समझ में आ गया। बोले– जान पड़ता है कि बहू इन लालाजी को सीधा करके छोड़ेगी।
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