सदाबहार >> वरदान (उपन्यास) वरदान (उपन्यास)प्रेमचन्द
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‘वरदान’ दो प्रेमियों की कथा है। ऐसे दो प्रेमी जो बचपन में साथ-साथ खेले...
रधिया– हां, हम सब बहुत समझाया कि परदेश मां कहां जैहो। मुदा कोऊ की सुनत है?
विरजन– कब जायेंगे?
रधिया– आज दस बजे की ट्रेन से जवय्या है। तुमसे भेंट करन आवत रहेन, तवन दुवारि पर आइ के लवट गयेन।
विरजन– यहां तक आकर लौट गये। द्वार पर कोई था कि नहीं?
रधिया– द्वार पर कहां आये न, सड़क पर से लवण गये न।
विरजन– कुछ कहा नहीं, क्यों लौटा जाता हूं?
रधिया– कुछ कहा नहीं, इतनै बोले कि ‘हमार टेन छूटिह जैहै, तौन हम जाइत हैं।’
विरजन ने घड़ी पर दृष्टि डाली, आठ बजने वाले थे। प्रेमवती के पास जाकर बोली– माता! लल्लू आज प्रयाग जा रहे हैं, यदि आप कहें तो उनसे मिलती आऊं। फिर न जाने कब मिलना हो, कब न हो। महरी कहती है कि बस मुझसे मिलने आते थे, पर सड़क के उसी पार से लौट गये।
प्रेमवती– अभी न बाल गुंथवाये, न मांग भरवायी, न कपड़े बदले बस जाने को तैयार हो गयी।
विरजन– मेरी अम्मां! आज जाने दीजिए। बाल गुंथवाने बैठूंगी तो दस यहीं बज जायेंगे।
प्रेमवती– अच्छा, तो जाओ, पर संध्या तक लौट आना। गाड़ी तैयार करवा लो, मेरी ओर से सुवामा को पालागन कह देना।
विरजन ने कपड़े बदले, माधवी को बाहर दौड़ाया कि गाड़ी तैयार करने के लिए कहो और तब तक कुछ ध्यान न आया। रधिया से पूछा– कुछ चिट्ठी-पत्री नहीं दी?
रधिया ने पत्र निकालकर दे दिया। विरजन ने उसे हर्ष से लिया, परन्तु उसे पढ़ते ही उसका मुख कुम्हला गया। सोचने लगी कि वह द्वार तक आकर क्यों लौट गये और पत्र भी लिखा तो ऐसा उखड़ा और अस्पष्ट। ऐसी कौन जल्दी थी? क्या गाड़ी के नौकर थे, दिनभर में अधिक नहीं तो पांच– छः गाड़ियां जाती होंगी। क्या मुझसे मिलने के लिए उन्हें दो घंटों का विलम्ब भी असहय हो गया? अवश्य इसमें कुछ-न-कुछ भेद है। मुझसे क्या अपराध हुआ? अचानक उसे उस समय का ध्यान आया, जब वह अति व्याकुल हो प्रताप के पास गई थी और उसके मुख से निकला था, ‘लल्लू मुझसे कैसे सहा जाएगा!’ विरजन को अब से पहिले कई बार ध्यान आ चुका कि मेरा उस समय उस दशा में जाना बहुत अनुचित था। परन्तु विश्वास हो गया कि मैं अवश्य लल्लू की दृष्टि से गिर गयी। मेरा प्रेम और मन अब उनके चित्त में नहीं है एक ठण्डी सांस लेकर बैठ गई और माधवी से बोली– कोचवान से कह दो, अब गाड़ी न तैयार करें। मैं न जाऊंगी।
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