सदाबहार >> वरदान (उपन्यास) वरदान (उपन्यास)प्रेमचन्द
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‘वरदान’ दो प्रेमियों की कथा है। ऐसे दो प्रेमी जो बचपन में साथ-साथ खेले...
मोटेराम– छिः! छिः! तुम्हारे ऊपर निहोरा कौन कर सकता है? कैसी बात मुख से निकालती हो? ऋण लेने में कोई लाज नहीं है। कौन रईस है जिस पर लाख दो-लाख का ऋण न हो?
सुवामा– मुझे विश्वास नहीं होता कि इस ऋण में निहोरा नहीं है।
मोटेराम– सुवामा, तुम्हारी बुद्वि कहां गई? भला, सब प्रकार के दुःख उठा लोगी पर क्या तुम्हें इस बालक पर दया नहीं आती?
मोटेराम की यह चोट बहुत कड़ी लगी। सुवामा सजलनयना हो गई। उसने पुत्र की ओर करुणा-भरी दृष्टि से देखा। इस बच्चे के लिए मैंने कौन-कौन सी तपस्या नहीं की? क्या उसके भाग्य में दुःख ही बदा है। जो अमोला जल-वायु के प्रखर झोंकों से बचाया जाता था, जिस पर सूर्य की प्रचण्ड किरणें न पड़ने पाती थीं, जो स्नेह-सुधा से अभिसिंचित रहता था, क्या वह आज इस जलती हुई धूप और इस आग की लपट में मुरझायेगा? सुवामा कई मिनट तक इसी चिन्ता में बैठी रहीं। मोटेराम मन-ही-मन प्रसन्न हो रहे थे कि अब सफलीभूत हुआ। इतने में सुवामा ने सिर उठाकर कहा– जिसके पिता ने लाखों को जिलाया– खिलाया, वह दूसरों का आश्रित नहीं बन सकता। यदि पिता का धर्म उसका सहायक होगा, तो स्वयं दस को खिलाकर खायगा। (लड़के को बुलाते हुए) बेटा! तनिक यहां आओ। कल से तुम्हारी मिठाई, दूध, घी सब बन्द हो जाएंगे। रोओगे तो नहीं? यह कहकर उसने बेटे को प्यार से बैठा लिया और उसके गुलाबी गालों का पसीना पोंछकर चुम्बन कर लिया।
प्रताप– क्या कहा? कल से मिठाई बन्द होगी? क्यों क्या हलवाई की दुकान पर मिठाई नहीं है?
सुवामा– मिठाई तो है, पर उसका रुपया कौन देगा?
प्रताप– हम बड़े होंगे, तो उसको बहुत-सा रुपया देंगे। चल, टख! टख! देख मां, कैसा तेज घोड़ा है!
सुवामा की आंखों में फिर जल भर आया। ‘हा हन्त! इस सौन्दर्य और सुकुमारता की मूर्ति पर अभी से दरिद्रता की आपत्तियां आ जायेंगी। नहीं -नहीं, मैं स्वयं सब भोग लूंगी परन्तु अपने प्राण प्यारे बच्चे के ऊपर आपत्ति की परछाई तक न आने दूंगी।’ माता तो यह सोच रही थी और प्रताप अपने हठी और मुंहजोर घोड़े पर चढ़ने में पूर्ण शक्ति से लीन हो रहा था। बच्चे मन के राजा होते हैं।
अभिप्राय यह कि मोटेराम ने बहुत जाल फैलाया। विविध प्रकार का वाक्य चातुर्य दिखलाया, परन्तु सुवामा ने एक बार ‘नहीं’ करके ‘हां’ न की। उसकी इस आत्मरक्षा का समाचार जिसने सुना, धन्य-धन्य कहा। लोगों के हृदय में उसकी प्रतिष्टा दूनी हो गई। उसने वही किया, जो ऐसे संतोषपूर्ण और उदार-हृदय मनुष्य की स्त्री को करना उचित था।
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