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वरदान (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :259
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8670

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‘वरदान’ दो प्रेमियों की कथा है। ऐसे दो प्रेमी जो बचपन में साथ-साथ खेले...


विरजन ने अपने चित्रों को फिर देखा और साभिमान आनन्द से, जो प्रत्येक रमणी को अपनी सुन्दरता पर होता है, अलबम को छिपा कर रख दिया। संध्या को कमलाचरण ने आकर देखा, तो अलबम का पता नहीं। हाथों से तोते उड़ गये। चित्र उसके कई मास के कठिन परिश्रम के फल थे और उसे आशा थी कि यही अलबम उपहार देकर विरजन के हृदय में और भी घर कर लूँगा। बहुत व्याकुल हुआ। भीतर जाकर विरजन से पूछा तो उसने साफ इन्कार किया। बेचारा घबराया हुआ अपने मित्रों के घर गया कि कोई उनमें से उठा ले गया हो। पर वहां भी फब्तियों के अतिरिक्त और कुछ हाथ न लगा। निदान जब महाशय पूरे निराश हो गये तो शाम को विरजन ने अलबम का पता बतलाया। इसी प्रकार दिवस सानन्द व्यतीत हो रहे थे। दोनों यही चाहते थे कि प्रेम-क्षेत्र में मैं आगे निकल जाऊँ! पर दोनों के प्रेम में अन्तर था। कमलाचरण प्रेमोन्माद में अपने को भूल गया। पर इसके विरुद्व विरजन का प्रेम कर्त्तव्य की नींव पर स्थित था। हाँ, यह आनन्दमय कर्त्तव्य था।

तीन वर्ष व्यतीत हो गये। वह उनके जीवन के तीन शुभ वर्ष थे। चौथे वर्ष का आरम्भ आपत्तियों का आरम्भ था। कितने ही प्राणियों को सांसार की सुख-सामग्रियाँ इस परिणाम से मिली हैं कि उनके लिए दिन सदा होली और रात्रि सदा दीवाली रहती है। पर कितने ही ऐसे हतभाग्य जीव हैं, जिनके आनन्द के दिन एक बार बिजली की भाँति चमककर सदा के लिए लुप्त हो जाते हैं। वृजरानी उन्हीं अभागों में थी। बसन्त की ऋतु थी। सीरी-सीरी वायु चल रही थी। सर्दी ऐसे कड़ाके की पड़ती थी कि कुओं का पानी जम जाता था। उस समय नगरों में प्लेग का प्रकोप हुआ। सहस्रों मनुष्य उसकी भेंट होने लगे। एक दिन बहुत कड़ा ज्वर आया, एक गिल्टी निकली और चल बसा। गिल्टी का निकलना मानो मृत्यु का संदेश था। क्या वैद्य, क्या डाक्टर किसी की कुछ न चलती थी। सैकड़ों घरों के दीपक बुझ गए। सहस्रों बालक अनाथ और सहस्रों स्त्रियां विधवा हो गयीं। जिसको जिधर गली मिली भाग निकला। प्रत्येक मनुष्य को अपनी-अपनी पड़ी हुई थी। कोई किसी का सहायक और हितैषी न था। माता-पिता बच्चों को छोड़कर भागे। स्त्रियों ने पुरुषों से सम्बन्ध परित्याग किया। गलियों में, सड़कों पर, घरों में जिधर देखिये मृतकों के ढेर लगे हुए थे। दुकानें बन्द हो गयीं। द्वारों पर ताले बन्द हो गए। चुतुर्दिक धूल उड़ती थी। कठिनता से कोई जीवधारी चलता-फिरता दिखायी देता था और यदि कोई कार्यवश घर से निकल पड़ता तो ऐसी शीघ्रता से पांव उठाता मानो मृत्यु का दूत उसका पीछा करता आ रहा है। सारी बस्ती उजड़ गयी। यदि आबाद थे तो कब्रिस्तान या श्मशान। चारों और डाकुओं की बन आयी। दिन-दोपहार ताले टूटते थे और सूर्य के प्रकाश में सेंधें पड़ती थीं। उस दारुण दुःख का वर्णन नहीं हो सकता।

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