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वरदान (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :259
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8670

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‘वरदान’ दो प्रेमियों की कथा है। ऐसे दो प्रेमी जो बचपन में साथ-साथ खेले...

(४)

मझगाँव

प्यारे
तुम पाषाणहृदय हो, कट्टर हो, स्नेह हीन हो, निर्दय हो, अकरुण हो झूठे हो! मैं तुम्हें और क्या गालियाँ दूँ और क्या कोसूँ? यदि तुम इस क्षण मेरे सम्मुख होते, तो इस वज्रहृदयता का उत्तर देती। मैं कह रही हूँ, तुम दगाबाज हो। मेरा क्या कर लोगे? नहीं आते तो मत आओ। मेरे प्राण लेना चाहते हो, ले लो। रुलाने की इच्छा है, रुलाओ। पर मैं क्यों रोऊँ! मेरी बला रोवे। जब आपको इतना ध्यान नहीं कि दो घण्टे की यात्रा है, तनिक उसकी सुधि लेता आऊँ, तो मुझे क्या पड़ी है कि रोऊं और प्राण खोऊं?

ऐसा क्रोध आ रहा है कि पत्र फाड़कर फेंक दूँ और फिर तुमसे बात न करूं। हाँ! तुमने मेरी सारी अभिलाषाएं, कैसे घूल में मिलायी हैं? होली! होली! किसी के मुख से यह शब्द निकला और मेरे हृदय में गुदगुदी होने लगी, पर शोक! होली बीत गयी और मैं...। निराश रह गयी। पहिले यह शब्द सुनकर आनन्द होता था। अब दुःख होता है। अपना-अपना भाग्य है। गाँव के भूखे-नंगे लँगोटी में फाग खेलें, आनन्द मनावें, रंग उड़ावें और मैं अभागिनी अपनी चारपाई पर सफेद साड़ी पहिने पड़ी रहूँ। शपथ ले लो जो उस पर एक लाल धब्बा भी पड़ा हो। शपथ ले लो जो मैंने अबीर और गुलाल हाथ से छुई भी हो। मेरी इत्र से बनी हुई अबीर, केवड़े में घोली गुलाल, रचकर बनाये हुए पान सब तुम्हारी अकृपा का रोना रो रहे हैं। माधवी ने जब बहुत हठ की, तो मैंने एक लाल टीका लगवा लिया। पर आज से इन दोषारोपणों का अन्त होता है। यदि फिर कोई शब्द दोषारोपण का मुख से निकला तो जबान काट लूँगी।

परसों सायंकाल ही से गाँव में चहल-पहल मचने लगी। नवयुवकों का एक दल हाथ में डफ लिए, अश्लील शब्द बकते द्वार-द्वार फेरी लगाने लगा। मुझे ज्ञान न था कि आज यहाँ इतनी गालियाँ खानी पड़ेंगी। लज्जाहीन शब्द उनके मुख से इस प्रकार बेधड़क निकलते थे जैसे फूल झड़ते हों। लज्जा और संकोच का नाम न था। पिता, पुत्र के सम्मुख और पुत्र, पिता के सम्मुख गालियाँ बक रहे थे। पिता ललकार कर पुत्र-वधू से कहता है– आज होली है! वधू घर में सिर नीचा किये हुये सुनती है और मुस्कुरा देती है। हमारे पटवारी साहब तो एक ही महात्मा निकले। आप मदिरा में मस्त, एक मैली-सी टोपी सर पर रखे इस दल के नायक थे। उनकी बहू-बेटियाँ भी उनकी अश्लीलता के वेग से न बच सकीं। गालियाँ खाओ और हँसो। यदि बदन पर तनिक भी मैल आये, तो लोग समझेंगे कि इसका मुहर्रम का जन्म है भली प्रथा है।

लगभग तीन बजे रात्रि के झुण्ड होली माता के पास पहुँचा। लड़के अग्नि-क्रीड़ादि में तत्पर थे। मैं भी कई स्त्रियों के पास गई, वहाँ स्त्रियाँ एक ओर होलियाँ गाय रही थीं। निदान होली में आग लगाने का समय आया। अग्नि लगते ही ज्वाला भड़की और सारा आकाश स्वर्ण-वर्ण हो गया। दूर-दूर तक के पेड़-पत्ते प्रकाशित हो गये। अब इस अग्नि राशि के चारों ओर ‘होली माता की जय!’ चिल्ला-चिल्ला कर दौड़ने लगे। सबके हाथों में गेहूँ और जौ की बालियाँ थीं, जिसको वे इस अग्नि में फेंकते जाते थे।

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