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वरदान (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :259
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8670

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‘वरदान’ दो प्रेमियों की कथा है। ऐसे दो प्रेमी जो बचपन में साथ-साथ खेले...


मुंशीजी बेचारे छोटे कद के मनुष्य, इधर-उधर फड़फड़ाते हैं, पर नक्कार-खाने में तूती की आवाज कौन सुनता है? कोई उन्हें प्यार करता है और गले लगाता है, दोपहर तक यही छेड़-छाड़ होती रही। तुलसा अभी तक बैठी हुई थी। मैंने उससे कहा– आज हमारे यहाँ तुम्हारा न्योता है। हम तुम संग खायेंगी। यह सुनते ही महराजिन दो थालियों में भोजन परोसकर लाई। तुलसा इस समय खिड़की की ओर मुंख करके खड़ी थी। मैंने जो उसको हाथ पकड़कर अपनी ओर खींचा तो उसे अपनी प्यारी-प्यारी आँखों से मोती के सोने बिखेरते हुए पाया। मैं उसे गले लगाकर बोली– सखी सच-सच बतला दो, क्यों रोती हो? हमसे कोई दुराव मत रखो। इस पर वह और भी सिसकने लगी। जब मैंने बहुत हठ की, उसने सिर घुमाकर कहा– बहिन! आज प्रातःकाल उन पर निशान पड़ गया। न जाने उन पर क्या बीत रही होगी। यह कहकर वह फूट-फूटकर रोने लगी। ज्ञात हुआ कि राधा के पिता ने कुछ ऋण लिया था। वह अभी तक चुका न सका था। महाजन ने सोचा कि इसे हवालात ले चलूँ तो रुपये वसूल हो जाएं। राधा कन्नी काटता फिरता था। आज द्वेषियों को अवसर मिल गया और वे अपना काम कर गए। शोक! मूल धन बीस रुपये से अधिक न था। प्रथम मुझे ज्ञात होता तो बेचारे पर त्योहार के दिन यह आपत्ति न आने पाती। मैंने चुपके से महाराज को बुलाया और उन्हें बीस रुपये देकर राधा को छुड़ाने के लिये भेजा।

उस समय मेरे द्वार पर एक टाट बिछा दिया गया था। लालाजी मध्य में कालीन पर बैठे थे। किसान लोग घुटने तक धोतियाँ बाँधे, कोई कुर्ती पहिने कोई नग्न देह, कोई सिर पर पगड़ी बाँधे और नंगे सिर, मुख पर अबीर लगाए– जो उनके काले वर्ण पर विशेष छटा दिखा रही थी– आने लगे। जो आता, लालाजी के पैंरों पर थोड़ी-सी अबीर रख देता। लालाजी भी अपने तश्तरी में से थोड़ी– सी अबीर निकालकर उसके माथे पर लगा देते और मुस्कुराकर कोई दिल्लगी की बात कर देते थे। वह निहाल हो जाता, सादर प्रणाम करता और ऐसा प्रसन्न होकर आ बैठता, मानो किसी रंग ने रत्न-राशि पायी है। मुझे स्वप्न में भी ध्यान न था कि लालाजी इन उजड्ड देहातियों के साथ बैठकर ऐसे आनन्द से वर्तालाप कर सकते हैं। इसी बीच में काशी भर आया। उसके हाथ में एक छोटी-सी कटोरी थी। वह उसमें अबीर लिए हुए था। उसने अन्य लोगों की भाँति लालाजी के चरणों पर अबीर नहीं रखी, किंतु बड़ी धृष्टता से मुट्ठी-भर लेकर उनके मुख पर भली-भाँति मल दी। मैं तो डरी, कहीं लालाजी रुष्ट न हो जाएं। पर वह बहुत प्रसन्न हुए और स्वयं उन्होंने भी एक टीका लगाने के स्थान पर दोनों हाथों से उसके मुख पर अबीर मली। उसके साथी उसकी ओर इस दृष्टि से देखते थे कि निस्संदेह तू वीर है और इस योग्य है कि हमारा नायक बने। इसी प्रकार एक-एक करके दो-ढाई सौ मनुष्य एकत्र हुए! अचानक उन्होंने कहा– आज कहीं राधा नहीं दीख पड़ता, क्या बात है? कोई उसके घर जाके देखो तो। मुंशी जगदम्बा प्रसाद अपनी योग्यता प्रकाशित करने का अच्छा अवसर देखकर बोल उठे– हजूर वह दफा १३ नं. अखिल ऐक्ट (अ) में गिरफ्तार हो गया। रामदीन पांडे ने वारण्ट जारी करा दिया। हरीच्छा से रामदीन पांडे भी वहाँ बैठे हुए थे। लाला ने उनकी ओर परम तिरस्कार दृष्टि से देखा और कहा– क्यों पांडेजी, इस दीन को बन्दीगृह में बन्द करने से तुम्हारा घर भर जाएगा? यही मनुष्यता और शिष्टता अब रह गयी है। तुम्हें तनिक भी दया न आयी कि आज होली के दिन उसे स्त्री और बच्चों से अलग किया। मैं तो सत्य कहता हूँ कि यदि मैं राधा होता, तो बन्दीगृह से लौटकर मेरा प्रथम उद्योग यही होता कि जिसने मुझे यह दिन दिखाया है, उसे मैं भी कुछ दिनों हल्दी पिलवा दूँ। तुम्हें लाज नहीं आती कि इतने बड़े महाजन होकर तुमने बीस रुपए के लिए एक दीन मनुष्य को इस प्रकार कष्ट में डाला। डूब मरना था ऐसे लोभ पर! लालाजी को वस्तुतः क्रोध आ गया था। रामदीन ऐसा लज्जित हुआ कि सब सिट्टी-पिट्टी भूल गयी। मुख से बात न निकली। चुपके से न्यायालय की ओर चला। सब-के-सब कृषक उसकी ओर क्रोध-पूर्ण दृष्टि से देख रहे थे। यदि लालाजी का भय न होता तो पांडेजी की हड्डी-पसली वहीं चूर हो जाती।

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