सदाबहार >> वरदान (उपन्यास) वरदान (उपन्यास)प्रेमचन्द
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‘वरदान’ दो प्रेमियों की कथा है। ऐसे दो प्रेमी जो बचपन में साथ-साथ खेले...
अभी उनके मुंह से पूरी बात भी न निकलने पायी थी कि प्रताप जिसका संकोच अब गायब हो चला था, बोला– नहीं विरजन तुम्हें भुलाते हैं ये कहानियां बनायी हुई हैं।
मुंशी जी इस निर्भीकतापूर्ण खण्डन पर खूब हंसे।
अब तो प्रताप तोते की भांति चहकने लगा– स्कूल इतना बड़ा है कि नगर भर के लोग उसमें बैठ जाएं। दीवारें इतनी ऊंची हैं, जैसे ताड़। बलदेव प्रसाद ने जो गेंद में हिट लगायी, तो वह आकाश में चली गयी। बड़े मास्टर साहब की मेज पर हरी-हरी बनात बिछी हुई है। उस पर फूलों से भरे गिलास रखे हैं। गंगाजी का पानी नीला है। ऐसे जोर से बहता है कि बीच में पहाड़ भी हो तो बह जाय। वहां एक साधु बाबा है। रेल दौड़ती है सन-सन। उसका इंजन बोलता है भक-भक। इंजिन में भाप होती है, उसी के जोर से गाड़ी चलती है। गाड़ी के साथ पेड़ भी दौड़ते दिखायी देते हैं।
इस भांति कितनी ही बातें प्रताप ने अपनी भोली-भाली बोली में कहीं विरजन चित्र की भांति चुपचाप बैठी सुन रही थी। रेल पर वह भी दो-तीन बार सवार हुई थी। परन्तु उसे आज तक यह ज्ञात न था कि उसे किसने बनाया और वह क्यों कर चलती है। दो बार उसने गुरुजी से यह प्रश्न किया भी था परन्तु उन्होंने यही कह कर टाल दिया कि बच्चा, ईश्वर की महिमा अपरम्पार है। विरजन ने भी समझ लिया कि ईश्वर की महिमा कोई बड़ा भारी और बलवान घोड़ा है, जो इतनी गाड़ियों को सन-सन खींचे लिए जाता है। जब प्रताप चुप हुआ तो विरजन ने पिता के गले हाथ डालकर कहा– बाबा। हम भी प्रताप की किताब पढ़ेंगे।
मुंशी– बेटी, तुम तो संस्कृत पढ़ती हो, यह तो भाषा है।
विरजन– तो मैं भी भाषा ही पढूंगी। इसमें कैसी अच्छी-अच्छी कहानियां हैं। मेरी किताब में तो एक भी कहानी नहीं। क्यों बाबा, पढ़ना किसे कहते हैं?
मुंशी जी बंगलें झांकने लगे। उन्होंने आज तक आप ही कभी ध्यान नहीं दिया था कि पढ़ना क्या वस्तु है। अभी वे माथा ही खुजला रहे थे कि प्रताप बोल उठा– मुझे पढ़ते देखा, उसी को पढ़ना कहते हैं।
विरजन– क्या मैं नहीं पढ़ती? मेरे पढ़ने को पढ़ना नहीं कहते?
विरजन सिद्वान्त कौमुदी पढ़ रही थी, प्रताप ने कहा– तुम तोते की भांति रटती हो।
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