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			 कविता संग्रह >> अंतस का संगीत अंतस का संगीतअंसार कम्बरी
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मंच पर धूम मचाने के लिए प्रसिद्ध कवि की सहज मन को छू लेने वाली कविताएँ
    बौद्धों की वज्रयान शाखा
      के नाथ-सिद्ध कवियों ने दोहा छंद का प्रयोग खूब किया है। संस्कृत साहित्य
      में तो दोहे का प्रयोग नहीं मिलता, लेकिन सातवीं सदी के बौद्ध तंत्र-साधक
      'सरहपाद'; सरहपा; में दोहा छंद में अपना बहुत सारा साहित्य लिखा है-
    जहि
      मंत्रा पवन न संचरई, रवि सीस नाहिं पवेसा।
    तहिवट
      चिन्त विसाम करु, सरहे कहिये सुवेसा।।
    
    विद्वानों ने सरहपाद,
      सरहपा या सरोरुह वज्रद्ध का रचना-काल विक्रमी सम्बत् 690 माना है। इस
      प्रकार अपनी डेढ़ हजार वर्ष की यात्रा तय करता हुआ दोहा आज भी प्रासंगिक और
      उपयोगी है। हिन्दी के किसी भी छंद की प्राचीनता इतनी अधिक नहीं है। अंसार
      क़म्बरी ने ''अंतस का संगीत'' के माध्यम से उस प्राचीन परम्परा में एक और
      कड़ी जोड़ी है। उनके दोहे प्रयोग के लिए नहीं लिखे गये, बल्कि हजारों वर्ष
      की उस श्रेष्ठ परम्परा के परिचायक हैं। वे कवि के मन की सूफियाना
      भाव-भंगिमा के प्रस्तावक हैं। उनमें कहीं गूढ़तम दार्शनिक चिंतन की सहज
      अभिव्यक्ति है और कहीं नैतिक एवं सामाजिक उद्भावनाओं की झलक। कहीं
      राधा-कृष्ण के माध्यम से प्रेम की अनन्यता को रेखांकित किया गया है, तो
      कहीं नैतिक उक्तियों को कविता की चाशनी में पागकर प्रस्तुत किया गया है।
      चाहे अर्थ-सौंदर्य हो या भाव-सौंदर्य, नाद-सौंदर्य हो या उक्ति-सौंदर्य,
      अंसार की कविता में इन सभी का समावेश है। यहाँ मुझे कविता के सम्बन्ध में
      दिनकर जी द्वारा कही गई बात याद आती है- 'कविता का महत्व ज्ञान-दान से
      नहीं सौंदर्य की सृष्टि में है।' वस्तुत: यह सौंदर्य सृष्टि तभी सम्भव है
      जब कविता की भाषा सरल और बोधगम्य हो। भाषा की यही सरलता और बोध गम्यता
      अंसार की कविता की प्रमुख विशेषता है। देखिए-
    केवल
      गरजें ही नहीं, बरसें भी कुछ देर।
    ऐसे
      भी बादल पवन, अब ले आओ घेर।।
    			
		  			
						
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