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धर्म एवं दर्शन >> अमृत द्वार

अमृत द्वार

ओशो

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :266
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9546

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ओशो की प्रेरणात्मक कहानियाँ

ऐसा आदमी जो किसी काम में तल्लीन नहीं है, केवल जागरूक है, स्वयं में तल्लीन होगा। अगर वह कहीं भी तल्लीन नहीं और सिर्फ जागरूक है जगत के प्रति तो स्वयं में तल्लीन होगा। अगर स्वयं में तल्लीनता आनंद है। पर में तल्लीनता सुख है और स्वयं में तल्लीनता आनंद है। पर में तल्लीनता से हम स्वयं को भूल जाते हैं। और समस्त पर के प्रति तल्लीनता टूट जाए, पर के प्रति केवल अवेयरनेस रह जाए, केवल होश मात्र रह जाए तो उस स्थिति में वह जो तल्लीनता होने की हमारी क्षमता है--क्षमता हमसे जरूर है--वह जो तल्लीन होने की क्षमता है वह कहीं और में तल्लीन अगर हमने नहीं होने दिया तो क्षमता स्वयं में तल्लीन हो जाएगी। वह व्यक्ति स्वस्थ होगा, वह स्वयं में स्थित होगा। वह अपने में खड़ा हो जाएगा। वह कहीं और में डूबा हुआ है, वह स्वयं में डूब जाएगा। ऐसा व्यक्ति समस्त कार्य करेगा क्योंकि वह जागरूक तो है, मूर्छित नहीं है। उसकी क्रियाएं पूर्ण कुशल होंगी क्योंकि वह किसी भी कार्य को परिपूर्ण जागरूकता से करेगा। लेकिन साथ-साथ एक अदभुत बात होगी। प्रत्येक वस्तु और प्रत्येक क्रिया को करते हुए भी अपने से च्युत नहीं होगा, अपने से डिगेगा नहीं, अपने में खड़ा रहेगा, सुस्थित होगा। ऐसे व्यक्ति को गीता ने स्थित प्रज्ञ कहा है। जिसकी प्रज्ञा बिलकुल स्थित हो गयी है-- शब्द बडा बढि़या उन्होंने चुना है। जिसकी प्रज्ञा अपने में बिलकुल ठहर गयी है जिसका ज्ञान बिलकुल अपने में ठहर गया है। तो ज्ञान हमारे स्वयं में ठहर जाए, उसके लिए शून्यता का और जागरूकता का प्रयोग है। शून्यता और जागरूकता में पहले भेद नहीं है। जागरूकता प्रक्रिया है परिणाम शून्यता है। जागरूकता होने का हम प्रयोग करेंगे, परिणाम में शून्यता उपलब्ध होगी। पहले वह निष्क्रिय होगी, फिर उसे सक्रिय करना होगा। और जब वह अखंड चौबीस घंटे हो जाए तो ऐसा आदमी सन्यास में है। वह कहाँ रहता है इससे मेरे लिए कोई संबंध नहीं है। वह कैसे रहता है इससे कोई संबंध नहीं है।

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