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उपन्यास >> अपने अपने अजनबी

अपने अपने अजनबी

सच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :165
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9550

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अज्ञैय की प्रसिद्ध रचना

सर्दियों के समय भारी हिमपात के बाद उत्तरी ध्रुव के पास रूस में अटके दो लोगों की कहानी...

 

अपने-अपने अजनबी

योके और सेल्मा

 

1


एकाएक सन्नाटा छा गया। उस सन्नाटे में ही योके ठीक से समझ सकी कि उससे निमिष भर पहले ही कितनी जोर का धमाका हुआ था - बल्कि धमाके को मानो अधबीच में दबाकर ही एकाएक सन्नाटा छा गया था।

वह क्या उस नीरवता के कारण ही था, या कि अवचेतन रूप से सन्नाटे का ठीक-ठाक अर्थ भी योके समझ गयी थी, कि उसका दिल इतने जोर से धड़कने लगा था? मानो सन्नाटे के दबाव को उसके हृदय की धड़कन का दबाव रोककर अपने वश कर लेना चाहता हो।

बर्फ तो पिछली रात से ही पड़ती रही थी। वहाँ उस मौसम में बर्फ का गिरना, या लगातार गिरते रहना, कोई अचम्भे की बात नहीं थी। शायद उसका न गिरना ही कुछ असाधारण बात होती। लेकिन योके ने यह सम्भावना नहीं की थी कि बर्फ का पहाड़ यों टूटकर उनके ऊपर गिर पड़ेगा और वे इस तरह उसके नीचे दब जाएँगे। जरूर वह बर्फ के नीचे दब गयी है, नहीं तो उस अधूरे धमाके और उसके बाद की नीरवता का और क्या अर्थ हो सकता है?

'वे दब जायेंगे' - सहसा उसे ध्यान आया कि वह अकेली नहीं है और मानो इससे उसकी तात्कालिक समस्या हल हो गयी, क्योंकि उसे तुरन्त ही चिन्ता करने को कोई दूसरी बात मिल गयी जिससे उसका ध्यान तूफान की ओर से हट जाए। मिसेज ऐकेलोफ का क्या हुआ होगा? योके दौड़कर दूसरे कमरे में गयी - लेकिन देहरी पार करते ही ठिठक गयी। श्रीमती एकेलोफ धुँधली खिड़की के पास घुटने टेककर बैठी थीं। उनकी पीठ योके की ओर थी। रूमाल से ढँका हुआ सिर तनिक-सा झुका हुआ था, जिससे योके ने अनुमान किया कि वह प्रार्थना कर रही होंगी। वह दबे पाँव लौटकर जाने ही वाली थी कि श्रीमती एकेलोफ ने खड़े होते हुए कहा, 'क्यों, योके, तुम डर तो नहीं गयीं?'

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