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उपन्यास >> अपने अपने अजनबी

अपने अपने अजनबी

सच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :165
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9550

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अज्ञैय की प्रसिद्ध रचना


योके को प्रश्न अच्छा नहीं लगा। उसने कुछ रुखाई से कहा, 'किससे?'

श्रीमती एकेलोफ ने कहा, 'हम लोग बर्फ के नीचे दब गये हैं। अब न जाने कितने दिन यों ही कैद रहना पड़ेगा। मैं तो पहले एक-आध जाड़ा यों काट चुकी हूँ लेकिन तुम -'

योके ने कहा, 'मैं बर्फ से नहीं डरती। डरती होती तो यहाँ आती ही क्यों? इससे पहले आल्प्स में बर्फानी चट्टानों की चढ़ाइयाँ चढ़ती रही हूँ। एक बार हिम-नदी से फिसलकर गिरी भी थी। हाथ-पैर टूट गये होते - बच ही गयी। फिर भी यहाँ भी तो बर्फ की सैर करने ही आयी थी।'

श्रीमती एकेलोफ ने कहा, 'हाँ, सो तो है। लेकिन खतरे के आकर्षण में बहुत-कुछ सह लिया जाता है - डर भी। लेकिन यहाँ तो कुछ भी करने को नहीं है।'

योके ने कहा, 'आंटी सेल्मा, मेरी चिन्ता न करें - मैं काम चला लूँगी। लेकिन आपके लिए कुछ -'

सेल्मा एकेलोफ के चेहरे पर एक स्निग्ध मुस्कान खिल आयी। 'आंटी' सम्बोधन उन्हें शायद अच्छा ही लगा। एक गहरी दृष्टि योके पर डालकर तनिक रुककर उन्होंने पूछा, 'अभी क्या बजा होगा?'

योके ने कलाई की घड़ी देखकर कहा, 'कोई साढ़े ग्यारह?'

'तब तो बाहर अभी रोशनी होगी। चलकर कहीं से देखा जाए कि बर्फ कितनी गहरी होगी - या कि खोद-खादकर रास्ता निकालने की कोई सूरत हो सकती है या नहीं। वैसे मुझे लगता तो यही है कि जाड़ों भर के लिए हम बन्द हैं।'

योके ने कहा, 'मेरी तो छुट्टियाँ भी इतनी नहीं है।' और फिर एकाएक इस चिन्ता के बेतुकेपन पर हँस पड़ी।

आंटी सेल्मा ने कहा, 'छुट्टी तो शायद - मेरी भी इतनी नहीं है - पर -

योके ने चौंकते हुए पूछा, 'आपकी छुट्टी, आंटी सेल्मा?'

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