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उपन्यास >> अपने अपने अजनबी

अपने अपने अजनबी

सच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :165
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9550

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अज्ञैय की प्रसिद्ध रचना


बुढ़िया ने कहा, 'मेरी ऐसी भी हालत होगी कि मैं गाऊँ तो कोई समझेगा कि मुझे तकलीफ है - कि मुझे किसी चीज की जरूरत है - और हाँ, तकलीफ भी है। लेकिन गाती हूँ खुशी से ही। बैठो, तुम भी गाओगी?'

'वह गाना तो मुझे नहीं आता।'

'तो जो आता है वही गाओ। शायद मैं भी गा सकूँ - मेरे सब गाने बचपन के ही नहीं हैं, बाद में भी कुछ सीखे थे।'

मैं बैठ गयी। लेकिन बहुत कोशिश करने पर भी मुँह से बोल नहीं निकला। सारी परिस्थिति में कहीं कुछ बहुत ही बेठीक लगा। जैसे अवतरण की बात भी गलत है और उसके गाने गाना भी गलत। अवतरण अगर हुआ है तो मृत्यु का और वह मृत्यु ऐसी नहीं है कि गाने से उसका स्वागत किया जाए। वह मेरे कन्धों पर सवार होकर मेरा गला घोंट रही है। कैसा बेपनाह है वह पंजा, जो छोड़ेगा नहीं लेकिन किसी की उँगलियों की छाप भी नहीं पड़ेगी। मैंने कल्पना की, मेरे हाथ बुढ़िया के गले पर हैं और उसे घोंट रहे हैं - बेपनाह हाथ - नहीं जानती कि उनकी पकड़ भी ऐसी है या नहीं कि कोई छाप न छोड़े; लेकिन बुढ़िया के गले की रक्तहीन पारदर्शी त्वचा तो पहले ही ऐसी है कि उस पर कोई छाप क्या पड़ेगी।

थोड़ी देर बाद बुढ़िया ने कहा, 'नहीं, यह मेरा अत्याचार है। मैं तो गा सकती हूँ क्योंकि मैं अन्धी हूँ। अन्धे अच्छा गाते हैं। तुम तो सब कुछ देखती हो - तुम्हें दृश्य ही अधिक अच्छे लगते हैं, स्वर नहीं। तुम्हें ठंड लग रही होगी, जाओ सोओ। भगवान तुम्हारा कल्याण करे। क्रिसमस मुबारक!'

मैंने यन्त्रवत् दोहराया, 'क्रिसमस मुबारक!' और लौट आयी।

फिर मैं सोयी नहीं। बुढ़िया भी शायद नहीं सोयी। गाना तो उसने बन्द कर दिया। लेकिन बीच-बीच में एक बहुत ही धीमी हुंकार-सी सुनाई पड़ती, जो न मालूम साँस के कष्ट की थी, या कि बीच-बीच में याद आ जानेवाले गाने की, या कि कराहने की।

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