उपन्यास >> अपने अपने अजनबी अपने अपने अजनबीसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
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अज्ञैय की प्रसिद्ध रचना
मैंने कहा, 'ऐसी कल्पना से क्या फायदा? और बाहर धूप हो भी तो हमें क्या जो -'
'हमें क्यों नहीं कुछ ? जो हमारे भीतर नहीं है वह हम बाहर कैसे दे सकते हैं - कैसे देना चाह सकते हैं? खुली, निखरी हुई, स्निग्ध, हँसती धूप - मैं बाहर उसकी कल्पना करती हूँ तो वह मेरे भीतर भी खिल आती है और मैं सोच सकती हूँ कि मैं उसे औरों को दे सकती हूँ। नहीं तो - कितना ठंडा अँधेरा होता है उसके भीतर, जिसे मरना है और सिवा मरने के और कुछ नहीं करना है।'
मैंने कुछ झिड़ककर कहा, 'क्रिसमस के दिन कैसे ऐसी बात कर सकती हो तुम, आंटी?'
आंटी ने बड़े सरल सहज भाव से कहा, 'मुझे कैंसर है।'
जो सन्नाटा हम दोनों के बीच में आ गया उसके पार मानो कमन्द फेंकते हुए बुढ़िया ने फिर कहा, 'धूप, खिली, खुली, हँसती हुई धूप - क्रिसमस के दिन की धूप! योके, मेरा तो इतना दम नहीं है - तुम क्यों नहीं गातीं - तुम्हारा गला इतना सुरीला है।'
मैंने कहना चाहा, अभी तो तुम कह रही थीं कि जो भीतर नहीं है वह बाहर कैसे दिया जा सकता है? लेकिन यह मुझसे कहते न बना। मैंने कहा, 'गाऊँगी, आंटी सेल्मा, गाऊँगी। पहले मुझे इस अँधेरे कब्रगाह का आदी तो हो जाने दो।'
बुढ़िया ने दोहराया, 'आदी।' और फिर हाथों से एक ऐसा इशारा किया जिसका अर्थ कुछ भी हो सकता था।...
30 दिसम्बर :
अब मुझसे और नहीं सहा जाता। सोचती हूँ कि यह कैसी परिस्थिति आ गयी है कि मुझे सब ओर बर्फ का भी ध्यान नहीं रहा है - कि मैं यह भी भूल गयी हूँ कि हम दोनों एक ही कब्र के साझीदार हैं। और सोचती हूँ तो केवल एक बात - कि अब साझीदार कब हट जाएगा, और मैं इस कब्र में अकेली रह जाऊँगी।
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