उपन्यास >> अपने अपने अजनबी अपने अपने अजनबीसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
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अज्ञैय की प्रसिद्ध रचना
31 दिसम्बर :
उसके सामने ही नहीं, अपने सामने भी कभी मेरा मन होता है कि चीख पड़ूँ कि अपने बाल नोच लूँ, कि आईने के सामने खड़ी होकर अपने को मारूँ, छोटी कैंची उठाकर अपने गालों में चुभा लूँ, कि नहेरने से अपने माथे, नाक-कान-ठोड़ी पर घाव कर लूँ, कि पानी का जग उठाकर आईने पर पटककर उसके और आईने के भी टुकड़े-टुकड़े कर दूँ। आईने के भी और उसमें झाँकते हुए अपने प्रतिरूप के भी जो इतनी बेहयाई से मुझे ताकता है और मेरी सब अराजक जिज्ञासाएँ वापस मेरे मुँह पर मारता है।...
उसको वहीं छोड़कर मैं चली आयी थी और अपने बिस्तर पर बैठी रही थी। काफी देर बाद, सोने की तैयारी करने से पहले मैंने झाँककर देखा तो वह आज रात देर तक जागने का अवसर था, क्योंकि आधी रात को नए साल का अभिनन्दन करने का कायदा है; लेकिन मैंने उसकी कोई चर्चा नहीं की थी और क्रिसमस के लिये उत्साह दिखानेवाली बुढ़िया ने भी देर तक जागने का प्रस्ताव नहीं किया था। इसीलिए मैं सोने चली आयी थी। पर वह तो बैठी है न! न मालूम जाग रही है या सो रही है - न मालूम होश में भी है या कि बेहोश है - पर निश्चल बैठी है। मैंने जाकर कहा, 'आंटी सेल्मा, चलो सोओ। मैं सुला दूँ?'
आंटी सेल्मा ने सिकुड़ते कन्धे सीधे करते हुए कहा, 'नहीं योके, मैं अभी बैठी हूँ - तुम सो जाओ।'
मैंने कहा, 'नए साल का अभिनन्दन करने बैठी हो?'
उसने कहा, 'हाँ! या कि शायद सिर्फ नए दिन का। क्योंकि साल का कोई भी दिन किसी दूसरे दिन से किस बात में कम है! बल्कि मैं तो सोच सकती हूँ कि कोई भी दिन साल का दिन क्यों है - दिन ही में क्या कम जादू है?'
बात पूरी-की-पूरी मुझसे नहीं कही गयी थी, बहुत कुछ स्वगत ही थी। पर मुझे ये सब बारीक बातें उस समय नहीं रुचीं। मैंने रुखाई से कहा, 'हाँ, लेकिन रोज-रोज तो तुम जागरण नहीं करती हो।'
उसने कहा, 'मुझे माफ कर दो, योके, मुझ बुढ़िया की सब बातें संगत नहीं होतीं - कुछ यों भी मुँह से निकल जाती हैं।'
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