लोगों की राय

उपन्यास >> अपने अपने अजनबी

अपने अपने अजनबी

सच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :165
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9550

Like this Hindi book 7 पाठकों को प्रिय

86 पाठक हैं

अज्ञैय की प्रसिद्ध रचना


वह बोली, 'हाँ, एक प्याला गरम पानी बल्कि तुम सच ही कहना चाहती हो तो आधा प्याला गरम पानी। मैंने तुमसे कह दिया कि जितनी मुझे जरूरत थी मैंने ले लिया। मैं क्या खाती-पीती हूँ इससे तुम्हें क्या मतलब? तुम यहाँ मेहमान हो, लेकिन इससे - '

मैं सन्न रह गयी। क्या यह सेल्मा ही बोल रही है?

फिर मैंने किसी तरह रुकते-रुकते कहा, 'ठीक है, मैं पूछनेवाली कोई नहीं होती। लेकिन स्वतन्त्रता मुझे भी चाहिए। यहाँ मैं अपनी इच्छा से कैद नहीं हुई, और न बीमार आदमी से सेवा लेकर स्वस्थ आदमी अपने को स्वतन्त्र महसूस कर सकता है।'

मैं नहीं जानती कि यह बात उसे तकलीफ देने के लिए ही कही थी या नहीं। फिर भी उसे जरूर बहुत तकलीफ हुई होगी, क्योंकि उसने कहा, 'मेरी बीमारी की बात बार-बार दोहराने की जरूरत नहीं है - मैं जानती हूँ कि मैं बीमार हूँ। मैं क्या जान-बूझकर हुई हूँ, या कि तुम्हें सताने के लिए बीमार हुई हूँ? और स्वतन्त्रता - कौन स्वतन्त्र है? कौन चुन सकता है कि वह कैसे रहेगा, या नहीं रहेगा? मैं क्या स्वतन्त्र हूँ कि बीमार न रहूँ - या कि अब बीमार हूँ तो क्या इतनी भी स्वतन्त्र हूँ कि मर जाऊँ? मैंने चाहा था कि अन्तिम दिनों में कोई मेरे पास न हो। लेकिन वह भी क्या मैं चुन सकी? तुम क्या समझती हो कि इससे मुझे तकलीफ नहीं होती कि जो मैं अपनों को भी नहीं दिखाना चाहती थी उसे देखने के लिए - भगवान ने - एक - एक अजनबी भेज दिया?'

थोड़ी देर चुप रहकर उसने कहा, 'मुझे माफ करो, योके, थोड़ी देर मेरे पास से चली जाओ! मैंने तुम्हें साक्षी नहीं चुना और भरसक कोशिश करूँगी कि तुम्हें कुछ न देखना पड़े - जितने पर मेरा वश नहीं उतना तो तुम मुझे क्षमा कर दो!'

क्यों उसे तकलीफ होती देखकर मुझे सन्तोष होता है? लेकिन तकलीफ तो शायद उसे बराबर रहती है - क्यों उसे तकलीफ से टूटते हुए देखकर होता है - क्या यह एक अत्यन्त विकृत ढंग की जिजीविषा नहीं है!

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book